स्वतन्त्र भारत में जिन महापुरुषों ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं के उत्थान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री शिवराम शंकर (दादासाहब) आप्टे का नाम उल्लेखनीय है।
2 फरवरी, 1905 को बड़ोदरा में जन्मे दादासाहब ने वेदान्त और धर्म में विशेष योग्यता (ऑनर्स) के साथ स्नातक होकर कानून की शिक्षा ली और मुम्बई उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। वे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, फाली नरीमन तथा मुहम्मद अली जिन्ना जैसे वरिष्ठ वकीलों के सहायक रहे।
कुछ समय वे एक अंग्रेजी पत्रिका में सम्पादक भी रहे। दो-ढाई साल वे वीर सावरकर जी के घर पर रहे। उन दिनों अंग्रेजी अखबार भारतीय पक्ष के समाचार प्रायः नहीं छापते थे। सावरकर जी ने उनसे भारतीय मन को समझने वाली समाचार संस्था बनाने को कहा। अतः यह काम सीखने के लिए उन्होंने दो साल तक रात की पारी में यू.पी.आई. नामक समाचार संस्था में काम किया।
दादासाहब बड़े शाही स्वभाव के व्यक्ति थे। सूट, बूट, टाई, हैट तथा सिगार उनके स्थायी साथी थे। न्यायालय के बाद वे शिवाजी पार्क में जाकर बैठते थे। वहाँ संघ की शाखा लगती थी। आबा जी थत्ते, बापूराव लेले, नारायणराव तर्टे आदि उस शाखा पर आते थे। उनके सम्पर्क में आकर दादासाहब 1944 में स्वयंसेवक बने और इसके बाद तो उनका जीवन ही बदल गया।
देश स्वतन्त्र होने के बाद अंग्रेजी समाचार पत्र अब सत्ताधारी कांग्रेस की चमचागिरी करने लगे। ऐसे में दादासाहब ने हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में समाचार संकलन व वितरण करने वाली ‘हिन्दुस्थान समाचार’ नामक संस्था का निर्माण किया। उन दिनों विश्व में केवल अंग्रेजी के दूरमुद्रक (टेलीप्रिंटर) ही प्रचलित थे। दादासाहब ने 1954 में हिन्दी का दूरमुद्रक विकसित किया। इससे हिन्दी पत्रकारिता जगत में क्रान्ति आ गयी।
हिन्दुस्थान समाचार के संस्थापक के रूप में दुनिया के अनेक देशों ने उन्हें आमन्त्रित किया। विश्व में भ्रमण के दौरान उन्होंने वहाँ के हिन्दुओं की दशा का अध्ययन किया। इसी आधार पर जब 1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई, तो उन्हें उसका महासचिव बनाया गया। देश-विदेश में प्रवास कर इसके विस्तार के लिए दादासाहब ने अथक प्रवास किया। इस कारण शीघ्र ही विश्व हिन्दू परिषद का काम विश्व भर में फैल गया।
दादासाहब एक अच्छे लेखक, चित्रकार तथा छायाकार भी थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में अनेक पुस्तकें लिखीं। इनमें से ‘शकारि विक्रमादित्य’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। ‘राष्ट्रगुरु रामदास’ नामक चित्रकथा के लिए उन्होंने चित्र भी बनाये। इसी से आगे चलकर महापुरुषों के जीवन चरित्र प्रकाशित करने वाली ‘अमर चित्रकथा’ की नींव पड़ी।
दादासाहब प्रतिदिन डायरी लिखते थे। 1942 से 1979 तक की उनकी डायरियाँ भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। कानून का जानकार होने के कारण 1948 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तथा फिर विश्व हिन्दू परिषद का संविधान बनाने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभायी।
1974 के बाद कई वर्ष उन्होंने महामंडलेश्वर स्वामी गंगेश्वरानन्द उदासीन के साथ विश्व-भ्रमण कर वेदों की पुनर्प्रतिष्ठा का प्रयास किया। जीवन के अन्तिम वर्षों में उन्होंने स्वयं को सब बाहरी कामों से अलग कर लिया। 10 अक्तूबर, 1985 को पुणे के कौशिक आश्रम में उनका देहावसान हुआ।