1857 के भारत के स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने वाले बाबा गंगादास का जन्म 14 फरवरी, 1823 (वसंत पंचमी) को गंगा के तट पर बसे प्राचीन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर (उ.प्र.) के पास रसूलपुर ग्राम में हुआ था। इनके पिता चौधरी सुखीराम तथा माता श्रीमती दाखादेई थीं। बड़े जमींदार होने के कारण उनका परिवार बहुत प्रतिष्ठित था। जन्म के कुछ दिन बाद पूरे विधि-विधान और हर्षोल्लास के साथ उनका नाम गंगाबख्श रखा गया।
चौधरी सुखीराम के परिवार में धार्मिक वातावरण था। इसका प्रभाव बालक गंगाबख्श पर भी पड़ा। उन दिनों उनका सम्पर्क उदासीन सम्प्रदाय के संत विष्णु दास से हो गया था। संत विष्णु दास ने उनकी निश्छल भक्ति भावना तथा प्रतिभा को देखकर उन्हें दीक्षा दी। इस प्रकार उनका नाम गंगाबख्श से गंगादास हो गया।
संत विष्णु दास के आदेश पर वे काशी आ गये। यहां लगभग 20 वर्ष उन्होंने संस्कृत के अध्ययन और साधना में व्यतीत किये। उन दिनों देश में सब ओर स्वाधीनता संग्राम की आग धधक रही थी। बाबा गंगादास इससे प्रभावित होकर ग्वालियर चले गये और वहां एक कुटिया बना ली। वहां गुप्त रूप से अनेक क्रांतिकारी उनसे मिलने तथा परामर्श के लिए आने लगे।
– 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई जब घिर गईं तो उनकी मदद के लिए बाबा गंगादास की शाला के करीब 400 साधु रानी के पास जा पहुंचे और अंग्रेजी फौज में मारकाट मचा दी थी।
– युद्ध-स्थल से मिल रही सूचनाओं से बाबा गंगादास को अहसास हो गया था कि रानी की शहादत किसी भी क्षण हो सकती है।
– लिहाजा उन्होंने रानी के साथ लड़ रहे साधुओं को संदेश पहुंचाया था कि रानी की देह अंग्रेजों के हाथ नहीं लगनी चाहिए। लिहाजा रानी के शहीद होते ही साधु उनके शरीर को शाला में ले आए।
– शाला में बाबा गंगादास ने साधुओं की कुटिया के घासफूस से रानी के लिए चिता बना कर रखी थी। रानी का शरीर आते ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया था।
– पीछा करते हुए आई अंग्रेज फौज को रानी की चिता की राख ही मिली थी। बौखलाए अंग्रेजों ने गंगादास की शाला पर तोप के गोलों की बौछार कर दी। करीब 700 साधु उस युद्ध में शहीद हो गए थे।
इसके बाद बाबा फिर से अपने क्षेत्र में मां गंगा के सान्निध्य में आ गये। वे जीवन भर निकटवर्ती गांवों में घूमकर ज्ञान, भक्ति और राष्ट्रप्रेम की अलख जलाते रहे। उन्होंने छोटी-बड़ी 50 से भी अधिक पुस्तकें लिखीं। उन्होंने अपने काव्य में खड़ी बोली का प्रयोग किया है। उन्होंने संत कबीर की तरह समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों पर भरपूर चोट की।
लगभग 20 वर्ष तक वे गढ़मुक्तेश्वर में राजा नृग के प्राचीन ऐतिहासिक कुएं के पास कुटिया बनाकर निवास करते रहे। यहां सन्त प्यारेलाल, माधोराम, फकीर इनायत अली आदि उनके सत्संग के लिए आते रहते थे। 1913 की जन्माष्टमी के पावन दिन ब्रह्ममुहूर्त में में गंगातट पर ही उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
Source – dainikbhaskar.com
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