अनादि काल से भारत भूमि पर हजारों सन्त महात्माओं ने जन्म लेकर अपने उपदेशों से जनता जर्नादन का कल्याण किया है। इन्हीं ऋषि-मुनियों की परम्परा में थे श्री दिगम्बर स्वामी, जिनके सत्संग का लाभ उठाकर हजारों भक्तों ने अपना जीवन सार्थक किया।
स्वामी जी का जन्म ग्राम सिरवइया (जिला उन्नाव, उ.प्र.) में आठ नवम्बर, 1903 को श्री नन्दकिशोर मिश्र तथा श्रीमती सुखदेई के घर में हुआ। इनका नाम गंगाप्रसाद रखा गया। जन्म से ही इनके बायें पैर में छह उँगलियाँ थीं। लोगों ने कहा कि यह बड़ा होकर घुमक्कड़ साधु बनेगा। इस भय से माता पिता ने 11 वर्ष की छोटी अवस्था में ही इनका विवाह कर दिया।
परन्तु गंगाप्रसाद तो बचपन से ही वैराग्य वृत्ति से परिपूरित थे। उनकी घर परिवार में कोई रुचि नहीं थी। अतः उन्होंने गृहस्थ धर्म को त्याग दिया और वाराणसी आकर कठोर तप किया। लम्बी साधना के बाद अपने गुरुजी की आज्ञा पाकर ये भ्रमण पर निकले और अन्ततः उन्नाव जिले के सुम्हारी गाँव में आकर पुनः योग साधना में लग गये। यहाँ रहकर उन्होंने गायत्री के तीन पुरश्चरण यज्ञ किये और फिर संन्यास आश्रम स्वीकार कर लिया।
हिन्दू धर्म ग्रन्थों का गहन अध्ययन होने के कारण इन्होंने अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ में विजय पायी। कुछ समय बाद जब विरक्ति भाव में और वृद्धि हुई, तो इन्होंने दण्ड, कमण्डल तथा लंगोट भी त्याग दिया और दिगम्बर अवस्था में रहने लगे। इसी से भक्त इन्हें दिगम्बर स्वामी कहने लगे और आगे चलकर इनका यही नाम प्रसिद्ध हो गया।
इसके बाद इनकी साधना और कठोर होने लगी। घोर सर्दी में भी ये भूमि पर पुआल बिछाकर तथा चटाई ओढ़कर सो जाते थे। भयंकर शीत में किसी ने इन्हें आग तापते नहीं देखा। इसी प्रकार ये भीषण वर्षा, गर्मी या लू की भी चिन्ता नहीं करते थे।
जून 1956 में स्वामी जी केदारनाथ गये। वहाँ तपस्या से इन्हें प्रभु का साक्षात्कार हुआ और उनसे इसी तीर्थक्षेत्र में निर्वाण का आश्वासन मिला। इसके बाद ये अपने आश्रम लौट आये। स्वामी जी ने अनेक बार पूरे भारत के महत्वपूर्ण तीर्थों की पदयात्रा की। प्रायः इनके साथ इनके भक्त भी चल देते थे। इन्होंने धन, सम्पत्ति, वस्त्र, अन्न आदि किसी वस्तु का कभी संग्रह नहीं किया। अपरिग्रह एवं विरक्ति को इन्होंने अपनी साधना का अंग बना लिया।
कभी-कभी ये लम्बा मौन धारण कर लेते थे। कई वर्ष तक यह क्रम चला कि एक बार हाथ में जितना अन्न आ जाये, उसे ही खड़े-खड़े खाकर ये तृप्त हो जाते थे। हिमालय से इन्हें अतिशय प्रेम था। बदरीनाथ और केदारनाथ के दर्शन करने ये प्रतिवर्ष ही जाते थे। 23 अक्तूबर, 1985 को श्री केदारनाथ धाम में बैठे-बैठे ही प्राणायाम के द्वारा श्वास रोककर इन्होंने शरीर त्याग दिया। केदारनाथ मन्दिर के पीछे आदि शंकराचार्य की समाधि से कुछ दूर मन्दाकिनी के तट पर इन्हें समाधि दी गयी।
कई वर्ष बाद लोगों ने देखा कि इनकी समाधि नदी में बह गयी है; पर इनका शरीर पद्मासन की मुद्रा में वहीं विराजमान है। शरीर अच्छी अवस्था में था तथा नमक डालने पर भी गला नहीं था। अतः 1993 में पुनः बड़ी-बड़ी शिलाओं से इनकी समाधि बनायी गयी तथा उसके ऊपर इनकी मूर्ति स्थापित कर वहाँ छोटी सी मठिया बना दी गयी। इनके भक्त आज भी इनके आश्रम तथा समाधि स्थल पर आकर धन्यता का अनुभव करते हैं।