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भारत की स्वतन्त्रता का पावन उद्देश्य और अदम्य उत्साह 1857 की महान क्रान्ति का प्रमुख कारण ही नहीं, आत्माहुति का प्रथम आह्नान भी था। देश के हर क्षेत्र से हर वर्ग और आयु के वीरों और वीरांगनाओं ने इस आह्वान को स्वीकार किया और अपने रक्त से भारत माँ का तर्पण किया। उस मालिका के एक तेजस्वी पुष्प थे क्रान्ति पुरोधा जोधासिंह अटैया।

10 मई, 1857 को जब बैरकपुर छावनी में वीर मंगल पांडे ने क्रान्ति का शंखनाद किया, तो उसकी गूँज पूरे भारत में सुनायी दी। 10 जून, 1857 को फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) में क्रान्तिवीरों ने भी इस दिशा में कदम बढ़ा दिया। इनका नेतृत्व कर रहे थे जोधासिंह अटैया। फतेहपुर के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खाँ भी इनके सहयोगी थे। इन वीरों ने सबसे पहले फतेहपुर कचहरी एवं कोषागार को अपने कब्जे में ले लिया।

जोधासिंह अटैया के मन में स्वतन्त्रता की आग बहुत समय से लगी थी। बस वह अवसर की प्रतीक्षा में थे। उनका सम्बन्ध तात्या टोपे से बना हुआ था। मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए इन दोनों ने मिलकर अंगे्रजों से पांडु नदी के तट पर टक्कर ली। आमने-सामने के संग्राम के बाद अंग्रेजी सेना मैदान छोड़कर भाग गयी। इन वीरों ने कानपुर में अपना झंडा गाड़ दिया।

जोधासिंह के मन की ज्वाला इतने पर भी शान्त नहीं हुई। उन्होंने 27 अक्तूबर, 1857 को महमूदपुर गाँव में एक अंग्रेज दरोगा और सिपाही को उस समय जलाकर मार दिया, जब वे एक घर में ठहरे हुए थे। सात दिसम्बर, 1857 को इन्होंने गंगापार रानीपुर पुलिस चैकी पर हमला कर अंग्रेजों के एक पिट्ठू का वध कर दिया। जोधासिंह ने अवध एवं बुन्देलखंड के क्रान्तिकारियों को संगठित कर फतेहपुर पर भी कब्जा कर लिया।

आवागमन की सुविधा को देखते हुए क्रान्तिकारियों ने खजुहा को अपना केन्द्र बनाया। किसी देशद्रोही मुखबिर की सूचना पर प्रयाग से कानपुर जा रहे कर्नल पावेल ने इस स्थान पर एकत्रित क्रान्ति सेना पर हमला कर दिया। कर्नल पावेल उनके इस गढ़ को तोड़ना चाहता था; पर जोधासिंह की योजना अचूक थी। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का सहारा लिया, जिससे कर्नल पावेल मारा गया। अब अंग्रेजों ने कर्नल नील केे नेतृत्व में सेना की नयी खेप भेज दी। इससे क्रान्तिकारियों को भारी हानि उठानी पड़ी।

लेकिन इसके बाद भी जोधासिंह का मनोबल कम नहीं हुआ। उन्होंने नये सिरे से सेना के संगठन, शस्त्र संग्रह और धन एकत्रीकरण की योजना बनायी। इसके लिए उन्होंने छद्म वेष में प्रवास प्रारम्भ कर दिया; पर देश का यह दुर्भाग्य रहा कि वीरों के साथ-साथ यहाँ देशद्रोही भी पनपते रहे हैं। जब जोधासिंह  अटैया अरगल नरेश से संघर्ष हेतु विचार-विमर्श कर खजुहा लौट रहे थे, तो किसी मुखबिर की सूचना पर ग्राम घोरहा के पास अंग्रेजों की घुड़सवार सेना ने उन्हें घेर लिया। थोड़ी देर के संघर्ष के बाद ही जोधासिंह अपने 51 क्रान्तिकारी साथियों के साथ बन्दी बना लिये गये।

जोधासिंह और उनके देशभक्त साथियों को अपने किये का परिणाम पता ही था। 28 अप्रैल, 1858 को मुगल रोड पर स्थित इमली के पेड़ पर उन्हें अपने 51 साथियों के साथ फाँसी दे दी गयी। बिन्दकी और खजुहा के बीच स्थित वह इमली का पेड़ (बावनी इमली) आज शहीद स्मारक के रूप में स्मरण किया जाता है।

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1857 के स्वाधीनता संग्राम में सफलता के बाद अंग्रेजों ने ऐसे क्षेत्रों को भी अपने अधीन करने का प्रयास किया, जो उनके कब्जे में नहीं थे। पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर एक ऐसा ही क्षेत्र था। स्वाधीनता प्रेमी वीर टिकेन्द्रजीत सिंह वहां के युवराज तथा सेनापति थे। उन्हें ‘मणिपुर का शेर’ भी कहते हैं।

उनका जन्म 29 दिसम्बर, 1856 को हुआ था। वे राजा चन्द्रकीर्ति के चौथे पुत्र थे। राजा की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र सूरचन्द्र राजा बने। दूसरे और तीसरे पुत्रों को क्रमशः पुलिस प्रमुख तथा सेनापति बनाया गया। कुछ समय बाद सेनापति झलकीर्ति की मृत्यु हो जाने से टिकेन्द्रजीत सिंह सेनापति बनाये गये।

राजवंशों में आपसी द्वेष व अहंकार के कारण सदा से ही गुटबाजी होती रही है। मणिपुर में भी ऐसा ही हुआ। अंग्रेजों ने इस स्थिति का लाभ उठाना चाहा। टिकेन्द्रजीत सिंह ने राजा सूरचन्द्र को कई बार सावधान किया; पर वे उदासीन रहे। इससे नाराज होकर टिकेन्द्रजीत सिंह ने अंगसेन, जिलंगाम्बा आदि कई वीर व स्वदेशप्रेमी साथियों सहित 22 सितम्बर, 1890 को विद्रोह कर दिया।

इस विद्रोह से डरकर राजा भाग गया। अब कुलचन्द्र को राजा तथा टिकेन्द्रजीत सिंह को युवराज व सेनापति बनाया गया। पूर्व राजा सूरचन्द्र ने टिकेन्द्रजीत सिंह को सूचना दी कि वे राज्य छोड़कर सदा के लिए वृन्दावन जाना चाहते हैं; पर वे वृन्दावन की बजाय कलकत्ता में ब्रिटिश वायसराय लैंसडाउन के पास पहुंच गये और अपना राज्य वापस दिलाने की प्रार्थना की।

इस पर वायसराय ने असम के कमिश्नर जे.डब्ल्यू. क्विंटन को मणिपुर पर हमला करने को कहा। उनकी इच्छा टिकेन्द्रजीत सिंह को पकड़ने की थी। चूंकि इस शासन के निर्माता तथा संरक्षक वही थे। क्विंटन 22 मार्च, 1891 को 400 सैनिकों के साथ मणिपुर जा पहुंचा। इस दल का नेतृत्व कर्नल स्कैन कर रहा था। उसने राजा कुलचंद्र को कहा कि हमें आपसे कोई परेशानी नहीं है। आप स्वतंत्रतापूर्वक राज्य करें; पर युवराज टिकेन्द्रजीत सिंह को हमें सौंप दें।

पर स्वाभिमानी राजा तैयार नहीं हुए। अंततः क्विंटन ने 24 मार्च को राजनिवास ‘कांगला दुर्ग’ पर हमला बोल दिया। उस समय दुर्ग में रासलीला का प्रदर्शन हो रहा था। लोग दत्तचित्त होकर उसे देख रहे थे।इस असावधान अवस्था में ही क्विंटन ने सैकड़ों पुरुषों, महिलाओं तथा बच्चों को मार डाला; पर थोड़ी देर में ही दुर्ग में स्थित सेना ने भी मोर्चा संभाल लिया। इससे अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा। क्रोधित नागरिकों ने पांच अंग्रेज अधिकारियों को पकड़कर फांसी दे दी। इनमें क्विंटन तथा उनका राजनीतिक एजेंट ग्रिमवुड भी था।

अंग्रेज सेना की इस पराजय की सूचना मिलते ही कोहिमा, सिलचर और तामू से तीन बड़ी सैनिक टुकडि़यां भेज दी गयीं। 31 मार्च, 1891 को अंग्रेजों ने मणिपुर शासन से युद्ध घोषित कर दिया। टिकेन्द्रजीत सिंह ने बड़ी वीरता से अंग्रेज सेना का मुकाबला किया; पर उनके साधन सीमित थे। अंततः 27 अप्रैल, 1891 को अंग्रेज सेना ने कांगला दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

अंग्रेजों ने राजवंश के एक बालक चारुचंद्र सिंह को राजा तथा मेजर मैक्सवेल को उनका राजनीतिक सलाहकार बनाकर मणिपुर को अपने अधीन कर लिया। टिकेन्द्रजीत सिंह भूमिगत हो गये; पर अंततः 23 मई को वे भी पकड़ लिये गये। अंग्रेजों ने मुकदमा चलाकर उन्हें और उनके साथी जनरल थंगल को 13 अगस्त, 1891 को इम्फाल के पोलो मैदान (वर्तमान वीर टिकेन्द्रजीत सिंह मैदान) में फांसी दे दी।

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भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक  बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे. अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया.

बिहार के शाहाबाद (भोजपुर) जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे कुंवर सिंह का जन्म 1777 में प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में हुआ. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे.

बाबू कुंवर सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह जिला शाहाबाद की कीमती और अतिविशाल जागीरों के मालिक थे. सहृदय और लोकप्रिय कुंवर सिंह को उनके बटाईदार बहुत चाहते थे. वह अपने गांववासियों में लोकप्रिय थे ही साथ ही अंग्रेजी हुकूमत में भी उनकी अच्छी पैठ थी. कई ब्रिटिश अधिकारी उनके मित्र रह चुके थे लेकिन इस दोस्ती के कारण वह अंग्रेजनिष्ठ नहीं बने.

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाबू कुंवर सिंह की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया. मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया. ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया. उन्होंने 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर आरा नगर पर कब्जा कर लिया. इस तरह कुंवर सिंह का अभियान आरा में जेल तोड़ कर कैदियों की मुक्ति तथा खजाने पर कब्जे से प्रारंभ हुआ.

कुंवर सिंह ने दूसरा मोर्चा बीबीगंज में खोला जहां दो अगस्त, 1857 को अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए. जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई. बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए. अंग्रजों ने जगदीशपुर पर भयंकर गोलाबारी की. घायलों को भी फांसी पर लटका दिया. महल और दुर्ग खंडहर कर दिए. कुंवर सिंह पराजित भले हुए हों लेकिन अंग्रेजों का खत्म करने का उनका जज्बा ज्यों का त्यों था. सितंबर 1857 में वे रीवा की ओर निकल गए वहां उनकी मुलाकत नाना साहब से हुई और वे एक और जंग करने के लिए बांदा से कालपी पहुंचे लेकिन लेकिन सर कॉलिन के हाथों तात्या की हार के बाद कुंवर सिंह कालपी नहीं गए और लखनऊ आए.

इस बीच बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे. लेकिन कुंवर सिंह की यह विजयी गाथा ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकी और अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुन: कब्जा करने के बाद आजमगढ़ पर भी कब्जा कर लिया. इस बीच कुंवर सिंह बिहार की ओर लौटने लगे. जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा पार कर रहे थे तभी उनकी बांह में एक अंग्रेजों की गोली आकर लगी. उन्होंने अपनी तलवार से कलाई काटकर नदी में प्रवाहित कर दी. इस तरह से अपनी सेना के साथ जंगलों की ओर चले गए और अंग्रेज़ी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल, 1858 को जगदीशपुर पहुंचे. वह बुरी तरह से घायल थे. 1857 की क्रान्ति के इस महान नायक का आखिरकार अदम्य वीरता का प्रदर्शन करते हुए 26 अप्रैल, 1858 को निधन हो गया.

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‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ की कार्यप्रणाली को जिन्होंने महत्वपूर्ण आधार दिया, वे थे श्री यशवंत वासुदेव केलकर। उनका जन्म 25 अप्रैल, 1925 को पंढरपुर (महाराष्ट्र) में हुआ था। उनके पिता शिक्षा विभाग में नौकरी करते थे। वे रूढि़वादी थे, जबकि माता जानकीबाई जातिभेद से ऊपर उठकर सोचती थीं। यशवंत के मन पर मां के विचारों का अधिक प्रभाव पड़ा।

यशवंत पढ़ाई में सदा प्रथम श्रेणी पाते थे। मराठी तथा अंग्रेजी साहित्य में उनकी बहुत रुचि थी। पुणे में महाविद्यालय में पढ़ते समय वे संघ के स्वयंसेवक बने। शाखा के सभी कार्यक्रमों में भी वे सदा आगे ही रहते थे।

1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की विफलता के बाद वे क्रांतिकारी आंदोलन से प्रभावित हुए। इस दौरान उन्होंने इटली के क्रांतिकारी जोजेफ मैजिनी की जीवनी का सामूहिक पठन-पाठन, डैम्ब्रिन की जीवनी का मराठी अनुवाद कर उसका प्रकाशन तथा फिर बम बनाने का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।

1944 तथा 45 में संघ शिक्षा वर्ग कर वे प्रचारक बने तथा नासिक आये। 1952 में वे सोलापुर के जिला प्रचारक बने। फिर उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी करने का निर्णय लिया और पुणे आकर अंग्रेजी में प्रथम श्रेणी में भी प्रथम रहकर एम.ए. किया। इस प्रकार वे शिक्षा तथा संगठन दोनों में कुशल थे।

उन्हें तुरंत मुंबई के के.सी. महाविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिल गयी। अगले साल वे नैशनल कॉलिज में आ गये और फिर 1985 में अवकाश प्राप्ति तक वहीं रहे। 1958 में अंग्रेजी की प्राध्यापक शशिकला जी के साथ उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। उन्हें तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई।

विद्यार्थी परिषद का जन्म 1947-48 में संघ पर लगे प्रतिबंध के समय एक मंच के रूप में हुआ था; पर 1949 में यह पंजीकृत संस्था बन गयी। 1958 तक इसका काम देश के कुछ प्रमुख शिक्षा केन्द्रों तक ही सीमित था। पर यशवंत जी को जब इसमें भेजा गया, तो संगठन ने नये आयाम प्राप्त किये।

परिषद के विचार तथा कार्यप्रणाली को उन्होंने सुदृढ़ आधार प्रदान किया। प्रांतीय तथा राष्ट्रीय अधिवेशन प्रारम्भ हुए। परिषद का कार्यालय बहुत वर्षों तक उनके घर में रहा। विद्यालय के बाद का पूरा समय वे परिषद को देने लेगे। 1967 में वे परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने; पर एक वर्ष बाद ही उन्होंने यह दायित्व छोड़ दिया। वस्तुतः उनका मन तो पर्दे के पीछे रहकर ही काम करने में लगता था। परिषद की दूसरी और फिर तीसरी टोली भी उन्होंने निर्माण की।

1975 में आपातकाल लगने पर संघ तथा अन्य कई संगठनों पर प्रतिबंध लगा। यह प्रतिबंध परिषद पर नहीं था; पर लोकतंत्र की हत्या के विरोध में हुए सत्याग्रह में परिषद के कार्यकर्ताओं ने भी भाग लिया। यशवंत जी को भी ‘मीसा’ में बंद कर दिया गया।

उनके कारण नासिक रोड की वह जेल भी एक शिविर बन गयी। शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रम वहां विधिवत चलते थे। यहां तक कि खाली ड्रमों का उपयोग कर पथसंचलन भी निकाला गया। जेल में अन्य विचार वाले बंदी लोगों से भी यशवंत जी ने मधुर संबंध बनाये।

आपातकाल के बाद यशवंत जी ने अपना पूरा ध्यान फिर से परिषद के काम में लगा दिया। 1984 में उनकी अनिच्छा के बावजूद देश भर में उनकी 60वीं वर्षगांठ मनाई गयी। इन कार्यक्रमों में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,  विद्यार्थी परिषद और हिन्दुत्व के बारे में ही बोलते थे।

इसी बीच वे पीलिया तथा जलोदर जैसी बीमारियों से पीडि़त हो गये। इलाज के बावजूद यह रोग घातक होता चला गया। यशवंत जी को भी इसका अनुभव हो गया था। इसी रोग से 6 दिसम्बर, 1988 को देर रात डेढ़ बजे उनका देहांत हो गया। उस समय उनका पूरा परिवार वहां उपस्थित था।

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रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार प्रदेश के बेगूसराय (पुराने मुंगेर) जिले के सिमरिया गांव में एक निम्न मध्यवर्गीय भूमिहार ब्राह्मण किसान परिवार में 23 सिंतबर 1908 को हुआ था।  उस जमाने में सिमरिया गांव के घर–घर में नित्य ‘रामचरितमानस’ का पाठ होता था। उनके पिता जी अपने समाज में मानस के मर्मज्ञ समझे जाते थे और लोगों का ख्याल था कि उनको यह ग्रंथ लगभग पूरी तरह कंठस्थ है। इसी धर्ममय वातावरण में बालक रामधारी का जन्म और लालन-पालन हुआ।जिस समाज में उन्होंने होश संभाला वह साधारण किसानों और खेतिहर मजदूरों का समाज था, जहां अधिकांश लोग निरक्षर और अंधविश्वासी थे।

‘दिनकर’ ने अपने जीवन मूल्य इसी परिवेश में स्थिर किए। इसी वातावरण में उन्होंने अपने साहित्य की दिशा निर्धारित की।1 दिसंबर 1973 को जब दिनकर जी को ‘उर्वशी’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा रहा था, तब अपने उद्बोधन में उन्होने कहा था-भगवान ने मुझको जब इस पृथ्वी पर भेजा तो मेरे हाथ में एक हथौड़ा दिया और कहा कि जा तू इस हथौड़े से चट्टान के पत्थर तोड़ेगा और तेरे तोड़े हुए अनगढ़ पत्थर भी कला के समुद्र में फूल के समान तैरेंगे।….मैं रंदा लेकर काठ को चिकनाने नहीं आया था। मेरे हाथ में तो कुल्हाड़ा था जिससे मैं जड़ता की लकड़ियों को फाड़ रहा था।….अपने प्रशंसकों के बीच, जिनमें इन पंक्तियों के लेखक से लेकर स्व. जवाहरलाल नेहरू तक शामिल हैं, दिनकर, पौरुष और ललकार के कवि माने जाते हैं।

सन् 1930-35 की अवधि में दिनकर ने जितनी देशभक्ति से परिपूर्ण क्रांतिकारी कविताएं रचीं उनका संग्रह 1935 में ‘रेणुका’ नाम से निकला। इस काव्य संग्रह का पूरे हिन्दी जगत् में उत्साह के साथ स्वागत किया गया। फिर सन् 1938 में ‘धुंधार’ निकली। अब तक दिनकर’ का प्रचंड तेज समस्त हिन्दी साहित्यकाश में फैल चुका था। इनका पहला प्रबंध काव्य’ ‘कुरुक्षेत्र’ सन् 1946 में निकला जिसमें हिंसा-अहिंसा, युद्ध और शांति आदि समस्याओं पर उनके गहन विचारों का अनुवाद कन्नड़ और तेलुगु आदि भाषाओं में हो चुका है।

फिर सन् 1952 में ‘रश्मिरथी’ नामक खंडकाव्य जो महाभारत के उपेक्षित महानायक कर्ण के जीवन पर आधारित है। इसने दिनकर की लोकप्रियता को सर्वाधिक ऊंचाई दी।  दिनकर की कोई 32 काव्य कृतियां एक-एक कर प्रकाश में आईं। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया। उनकी गद्य रचना ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उन्हें सन् 1959 में साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया। इनकी कई रचनाओं का अंग्रेजी, रूसी, स्पेनिश आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

उनका व्यक्तिगत जीवन संघर्षों, उपलब्धियों और दायित्वों से भरा रहा। स्कूल में शिक्षक की नौकरी की। सन् 1934 में सरकारी नौकरी में गए और सन् 1942 तक सब–रजिस्ट्रार के पद पर रहे। सन् 1947 में वे बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में उपनिदेशक बने। इसके बाद से उनके जीवन में पदों और सम्मानों की बाढ़ सी आ गई।स्नातकोत्तर उपाधि से रहित होने के बावजूद उन्हें महाविद्यालय में हिन्दी का अध्यापक नियुक्त किया गया। यह उनकी असाधारण योग्यता और प्रतिभा का सम्मान था। बारह वर्षों तक राज्यसभा के सदस्य रहे। फिर भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गए। इसके बाद भारत सरकार के गृहमंत्रालय में हिन्दी सलाहकार मनोनीत हुए। सन् 1971 में वे सारे पदभारों से मुक्त होकर पटना चले आए।

सन् 1959 में उन्हें ‘पद्मभूषण की उपाधि प्रदान की गई। सन् 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी।लिट. की मानद उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने इंग्लैंड, स्विटजरलैंड, पश्चिम जर्मनी और रूस के साथ-साथ चीन, मिस्त्र और मॉरीशस आदि देशों का भी भ्रमण किया। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ एक उत्कृष्ट गद्यकार भी थे। उनकी पुस्तकों की कुल संख्या 60 बताई जाती है, जिनमें सत्ताइस गद्यग्रंथ हैं। इनमें आधी पुस्तकों में निबंध या निबंध के ढंग की चीजें संकलित हैं।

रामधारी दिनकर जी का देहांत 24 अप्रैल, 1974 को चेन्नई मे हुआ. वर्ष 1999 में उनके नाम से भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया.

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चन्द्रसिंह का जन्म ग्राम रौणसेरा, (जिला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड) में 25 दिसम्बर, 1891 को हुआ था। वह बचपन से ही बहुत हृष्ट-पुष्ट था। ऐसे लोगों को वहाँ ‘भड़’ कहा जाता है। 14 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया।

उन दिनों प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो जाने के कारण सेना में भर्ती चल रही थी। चन्द्रसिंह गढ़वाली की इच्छा भी सेना में जाने की थी; पर घर वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। अतः चन्द्रसिंह घर से भागकर लैंसडाउन छावनी पहुँचे और सेना में भर्ती हो गये। उस समय वे केवल 15 वर्ष के थे।

इसके बाद राइफलमैन चन्द्रसिंह ने फ्रान्स, मैसोपोटामिया, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त, खैबर तथा अन्य अनेक स्थानों पर युद्ध में भाग लिया। अब उन्हें पदोन्नत कर हवलदार बना दिया गया। छुट्टियांे में घर आने पर उन्हें भारत में हो रहे स्वतन्त्रता आन्दोलन की जानकारी मिली। उनका सम्पर्क आर्यसमाज से भी हुआ। 1920 में कांग्रेस के जगाधरी (पंजाब) में हुए सम्मेलन में भी वे गये; पर फिर उन्हें युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया गया।

युद्ध के बाद वे फिर घर आ गये। उन्हीं दिनों रानीखेत (उत्तराखंड) में हुए कांग्रेस के एक कार्यक्रम में गांधी जी भी आये थे। वहाँ चन्द्रसिंह अपनी फौजी टोपी पहनकर आगे जाकर बैठ गये। गांधी जी ने यह देखकर कहा कि मैं इस फौजी टोपी से नहीं डरता। चन्द्रसिंह ने कहा यदि आप अपने हाथ से मुझे टोपी दें, तो मैं इसे बदल भी सकता हूँ। इस पर गांधी जी ने उसे खादी की टोपी दी। तब से चन्द्रसिंह का जीवन आमूल चूल बदल गया।

1930 में गढ़वाल राइफल्स को पेशावर भेजा गया। वहाँ नमक कानून के विरोध में आन्दोलन चल रहा था। चन्द्रसिंह ने अपने साथियों के साथ यह निश्चय किया कि वे निहत्थे सत्याग्रहियांे को हटाने में तो सहयोग करेंगे; पर गोली नहीं चलायेंगे। सबने उसके नेतृत्व में काम करने का निश्चय किया।

23 अप्रैल, 1930 को सत्याग्रह के समय पेशावर में बड़ी संख्या में लोग जमा थे। तिरंगा झंडा फहरा रहा था। बड़े-बड़े कड़ाहों में लोग नमक बना रहे थे। एक अंग्रेज अधिकारी ने अपनी मोटरसाइकिल उस भीड़ में घुसा दी। इससे अनेक सत्याग्रही और दर्शक घायल हो गये। सब ओर उत्तेजना फैल गयी। लोगों ने गुस्से में आकर मोटरसाइकिल में आग लगा दी।

गुस्से में पुलिस कप्तान ने आदेश दिया – गढ़वाली थ्री राउंड फायर। पर उधर से हवलदार मेजर चन्द्रसिंह गढ़वाली की आवाज आयी – गढ़वाली सीज फायर। सिपाहियों ने अपनी राइफलें नीचे रख दीं। पुलिस कप्तान बौखला गया; पर अब कुछ नहीं हो सकता था।

चन्द्रसिंह ने कप्तान को कहा कि आप चाहे हमें गोली मार दें; पर हम अपने निहत्थे ​ देशवासिओं ​पर गोली नहीं चलायेंगे। कुछ अंग्रेज पुलिसकर्मियों तथा अन्य पल्टनों ने गोली चलायी, जिससे अनेक सत्याग्रही तथा सामान्य नागरिक मारे गये।

तुरन्त ही गढ़वाली पल्टन को बैरक में भेजकर उनसे हथियार ले लिये गये। चन्द्रसिंह को गिरफ्तार कर 11 वर्ष के लिए जेल में ठूँस दिया गया। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी। जेल से छूटकर वे फिर स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हो गये। स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने राजनीति से दूर रहकर अपने क्षेत्र में ही समाजसेवा करना पसन्द किया।

एक अक्तूबर, 1979 को पेशावर कांड के इस महान सेनानी की मृत्यु हुई। शासन ने 1994 में उन पर डाक टिकट जारी किया।

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क्रान्तिवीर योगेश चन्द्र चटर्जी का जीवन देश को विदेशी दासता से मुक्त कराने की गौरवमय गाथा है। उनका जन्म अखंड भारत के ढाका जिले के ग्राम गोकाडिया, थाना लोहागंज में तथा लालन-पालन और शिक्षा कोमिल्ला में हुई। 1905 में बंग-भंग से जो आन्दोलन शुरू हुआ, योगेश दा उसमें जुड़ गये। पुलिन दा ने जब ‘अनुशीलन पार्टी’ बनायी, तो ये उसमें भी शामिल हो गये। उस समय इनकी अवस्था केवल दस वर्ष की थी।

अनुशीलन पार्टी की सदस्यता बहुत ठोक बजाकर दी जाती थी; पर योगेश दा हर कसौटी पर खरे उतरे। 1916 में उन्हें पार्टी कार्यालय से गिरफ्तार कर कोलकाता के कुख्यात ‘नालन्दा हाउस’ में रखा गया। वहाँ बन्दियों पर अमानुषिक अत्याचार होते थे। योगेश दा ने भी यह सब सहा। 1919 में आम रिहाई के समय वे छूटे और बाहर आकर फिर पार्टी के काम में लग गये। अतः बंगाल शासन ने 1923 में इन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया।

1925 में जब क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल ने अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे क्रान्तिकारियों को एक साथ और एक संस्था के नीचे लाने का प्रयास किया, तो योगेश दा को संयुक्त प्रान्त का संगठक बनाया गया। काकोरी रेल डकैती कांड में कुछ को फाँसी हुई, तो कुछ को आजीवन कारावास। यद्यपि योगेश दा इस कांड के समय हजारीबाग जेल में बन्द थे; पर उन्हें योजनाकार मानकर दस वर्ष के कारावास की सजा दी गयी।

जेल में रहते हुए उन्होंने राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों के लिए कई बार भूख हड़ताल की। फतेहगढ़ जेल में तो उनका अनशन 111 दिन चला। तब प्रशासन को झुकना ही पड़ा। जेल से छूटने के बाद भी उन्हें छह माह के लिए दिल्ली से निर्वासित कर दिया गया। 1940 में संयुक्त प्रान्त की सरकार ने उन्हें फिर पकड़ कर आगरा जेल में बन्द कर दिया।

वहाँ से उन्हें देवली शिविर जेल में भेजा गया। संघर्षप्रेमी योगेश दा ने देवली में भी भूख हड़ताल की। इससे उनकी हालत खराब हो गयी। उन्हें जबरन कोई तरल पदार्थ देना भी सम्भव नहीं था; क्योंकि उनकी नाक के अन्दर का माँस इतना बढ़ गया था कि पतली से पतली नली भी उसमें नहीं घुसती थी। अन्ततः शासन को उन्हें छोड़ना पड़ा।

पर शांत बैठना उनके स्वभाव में नहीं था। अतः 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी फरार अवस्था में व्यापक प्रवास कर वे नवयुवकों को संगठित करते रहे। इस बीच उन्हें कासगंज षड्यन्त्र में फिर जेल भेज दिया गया। 1946 में छूटते ही वे फिर काम में लग गये। इसके बाद वे लखनऊ में ही रहने लगे।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद वे राजनीति में अधिक सक्रिय हो गये। उन पर मार्क्सवाद और लेनिनवाद का काफी प्रभाव था; पर भारत के कम्युनिस्ट दलों की अवसरवादिता और सिद्धान्तहीनता देखकर उन्हें बहुत निराशा हुई। उन्होंने कई खेमों में बंटे साथियों को एक रखने का बहुत प्रयास किया; पर जब उन्हें सफलता नहीं मिली, तो उनका उत्साह ठंडा हो गया। 1955 में वे चुपचाप कम्युनिस्ट पार्टी और राजनीति से अलग हो गये।

योगेश दा सादगी की प्रतिमूर्ति थे। वे सदा खद्दर ही पहनते थे। 1967 के लोकसभा चुनाव के बाद उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया। 22 अप्रैल, 1969 को 74 वर्ष की अवस्था में दिल्ली में उनका देहान्त हुआ। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इन सर्च आॅफ फ्रीडम’ नामक पुस्तक में लिखी है।

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गणपतराय का जन्म 17 जनवरी 1808 को ग्राम भौरो (जिला लोहरदगा, झारखंड) में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री किसनराय तथा माता श्रीमती सुमित्रादेवी थीं। बचपन से ही वनों में घूमना, घुड़सवारी, आखेट आदि उनकी रुचि के विषय थे। इस कारण उनके मित्र उन्हें ‘सेनापति’ कहते थे।

बचपन से ही इनका मन अपने देश और जागीरों पर अंग्रेजों के शासन को देखकर बहुत चिढ़ता था। वे इसकी चर्चा अपने साथियों और माता-पिता से करते थे; पर सब इसे उनका बचपना समझकर टाल देते थे।

कुछ बड़े होने पर वे पढ़ने के लिए अपने चाचा सदाशिव पांडेय के पास पालकोट आ गये। उनके चाचा पालकोट रियासत के दीवान थे। गणपतराय की योग्यता देखकर चाचा की मृत्यु के बाद उनको ही रियासत का दीवान बना दिया गया।

रियासत के शासक जगन्नाथ पांडेय सदा अंग्रेजों की चमचागीरी करते रहते थे। गणपतराय उन्हें अंग्रेजों से डटकर मुकाबला करने का परामर्श देते थे; पर कायर राजा इसके लिए तैयार नहीं हुआ। 1829 में अंग्रेजों ने राजा जगन्नाथ को गद्दी से हटाकर उनकी जागीर पर कब्जा कर लिया।

राजा ने स्वभाववश कोई विरोध नहीं किया। वह चुप होकर बैठ गये। गणपतराय का मन विद्रोह कर उठा; पर वे कुछ कर नहीं सकते थे। अतः दीवान के पद से त्यागपत्र देकर वे गाँव वापस आ गये तथा अपने पुराने मित्र ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के साथ मिलकर अंग्रेजों का विरोध करने लगे।

2 अगस्त, 1857 को उन्होंने अपने साथियों के साथ राँची जेल तोड़कर 300 वीरों को मुक्त करा लिया और वहाँ तैनात अंग्रेजों को मार डाला। राँची न्यायालय के पास स्थित कुआँ अंग्रेजों की लाशों से भर गया। 21 दिन तक छोटा नागपुर, खूँटी तथा राँची का क्षेत्र स्वतन्त्र रहा। यह सुनकर हजारीबाग के सन्थाल वनवासियों ने भी विद्रोह कर दिया। वे अपने तीर-कमान लेकर सड़कों पर उतर आये। यद्यपि वे पूर्णतः सफल नहीं हो पाये।

गणपतराय की इच्छा थी कि वे जगदीशपुर के क्रान्तिवीर कुँवरसिंह से मिलकर अस्त्र-शस्त्र का संग्रह करें। इसी योजना के अन्तर्गत वे 200 साथियों को लेकर 11 सितम्बर, 1857 को राँची से चल दिये। चतरा नामक स्थान पर मेजर इगलिश की सशस्त्र टुकड़ी से उनकी मुठभेड़ हुई। इसमें 150 क्रान्तिकारी तथा 58 अंग्रेज मारे गये। अंग्रेजों ने लोगों को आतंकित करने के लिए इन सबके शवों को एक तालाब के आसपास लगे वृक्षों पर टाँग दिया। आज भी वह तालाब ‘फाँसी का तालाब’ कहलाता है।

गणपतराय इस युद्ध में बच गये। वे अपने गाँव वापस आकर फिर से साथियों एवं शस्त्रों का संग्रह करने लगे। अंग्रेजों ने उनकी सब सम्पत्ति जब्त कर ली थी। एक रात अंग्रेजों ने उनके गाँव को घेर लिया; पर गणपतराय अपने पुरोहित उदयनाथ पाठक के साथ लोहरदगा की ओर चल दिये।

दुर्भाग्यवश अंधेरे के कारण वे रास्ता भटक गये और परहेपाट गाँव में जा पहुँचे। वहाँ के देशद्रोही जमींदार महेश शाही ने उन्हें पकड़वा दिया। राँची लाकर उन पर अभियोग चलाया गया। राँची के तत्कालीन हाईस्कूल के पास एक कदम्ब का पेड़ था। उसी पेड़ पर 20 अप्रैल, 1858 को क्रान्तिकारी विश्वनाथ शाहदेव को तथा 21 अप्रैल को गणपतराय को फाँसी दे दी गयी।

राँची का यह स्थान आज ‘शहीदी चौक’ के नाम से जाना जाता है।

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जुथिका राय को मीरा बाई के बाद आधुनिक मीरा के नाम से जाना जाता है . जो लोग कला जगत में बहुत ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं, उनमें से अधिकांश को आचार-व्यवहार की अनेक दुर्बलताएं घेर लेती हैं; पर भजन गायन की दुनिया में अपार प्रसिद्धि प्राप्त जुथिका राॅय का जीवन इसका अपवाद था। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह था कि उनका परिवार रामकृष्ण मिशन से जुड़ा हुआ था। अतः बचपन से ही उन्हें अच्छे संस्कार मिले।

जुथिका राॅय का जन्म 20 अपै्रल, 1920 को बंगाल में हावड़ा जिले के  आमता गांव में हुआ था। सात वर्ष की अवस्था से ही वे भजन गाने लगी थीं। 1933 में आकाशवाणी कोलकाता ने काजी नजरुल इस्लाम के निर्देशन में उनके दो गीत रिकार्ड किये, जो प्रसारित नहीं हुए। अगले साल ग्रामोफोन कंपनी के प्रशिक्षक कमल दासगुप्ता ने उन्हें फिर से रिकार्ड कर प्रसारित किया। इस प्रकार जुथिका राॅय के गायन की मधुरता से सबका परिचय हो सका।

जुथिका ने मुख्यतः मीरा के भजन गाये हैं, जिन्हें गांधी जी, नेहरू और मोरारजी भाई जैसे लोग भी पसंद करते थे। एक बार वे हैदराबाद में थीं, तो सुबह ही सरोजिनी नायडू उनके आवास पर आ गयीं और वहीं उनसे कुछ भजन सुने।  उन्होंने जुथिका को आशीर्वाद देते हुए बताया कि गांधी जी पुणे जेल में रहते हुए प्रतिदिन उनके भजनों के रिकार्ड सुनते थे। जुथिका के लिए यह बड़े सम्मान की बात थी। सरोजिनी नायडू ने उन्हें गांधी जी मिलने को भी कहा।

1946 में मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के कारण कोलकाता में  हिन्दुओं का व्यापक संहार हुआ। इसकी प्रतिक्रिया में बंगाल और निकटवर्ती क्षेत्रों में हुई। ऐसे में गांधी जी हिन्दू और मुसलमानों में परस्पर सद्भाव की स्थापना के लिए कोलकाता गये और कई दिन वहां बेलियाघाटा में रहे।

एक दिन जुथिका प्रातः छह बजे अपनी मां, पिता और चाचा के साथ उनके दर्शन करने उनके आवास पर गयी। भारी वर्षा के बावजूद वहां मिलने वालों की बहुत भीड़ थी। बाहर खड़े कार्यकर्ता किसी को अंदर नहीं जाने दे रहे थे; पर गांधी जी ने जब जुथिका का नाम सुना, तो उन्हें अंदर बुला लिया।

उस दिन गांधी जी का मौन था। उन्होंने जुथिका को आशीर्वाद दिया तथा कागज पर लिखकर बात की। फिर उन्होंने उसे भजन गाने को कहा और पास के कमरे में नहाने चले गये। जुथिका ने बिना किसी संगतकार के मीरा के कई भजन सुनाये। स्नान के बाद गांधी जी उन्हें अपने साथ प्रार्थना सभा में ले गये और उस दिन की सभा का समापन जुथिका के भजनों से ही हुआ।

प्रधानमंत्री रहते हुए जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें एक बार अपने आवास पर बुलाया और भजन सुनने लगे। काम के बोझ और तनाव से ग्रस्त नेहरू जी को इससे इतना मानसिक आनंद मिला कि वे अपनी टोपी और चप्पल उतारकर धरती पर बैठ गये और दो घंटे तक उनका गायन सुनते रहे।

बंगलाभाषी जुथिका राॅय ने जो लगभग 400 गीत गाये हैं, उनमें से अधिकांश हिन्दी में हैं। इनमें कुछ होली और बरखा गीत भी हैं। फिल्मी गायन में अरुचि होने पर भी उन्होंने निर्देशक देवकी बोस तथा गीतकार पंडित मधुर से व्यक्तिगत सम्बन्धों के कारण ‘रत्नदीप’ और ‘ललकार’ में चार गीत गाये हैं।

जुथिका राॅय का परिवार रामकृष्ण मिशन से जुड़ा हुआ था। जुथिका तथा उनकी दो बहनों ने 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। दोनों बहनों ने इसके बाद विवाह कर लिया; पर जुथिका राॅय ने यह व्रत जीवन भर निभाया।

मीरा और कबीर के गीतों के माध्यम से मां सरस्वती की आराधना करते वाली जुथिका राॅय को 1972 में ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया। 2002 में बांग्ला में लिखित उनकी आत्मकथा ‘आज ओ मोने पड़’ प्रकाशित हुई है।

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भारत माँ की कोख कभी सपूतों से खाली नहीं रही। ऐसा ही एक सपूत थे अनन्त लक्ष्मण कान्हेरे, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए केवल 19 साल की युवावस्था में ही फाँसी के फन्दे को चूम लिया।

महाराष्ट्र के नासिक नगर में उन दिनों जैक्सन नामक अंग्रेज जिलाधीश कार्यरत था। उसने मराठी और संस्कृत सीखकर अनेक लोगों को प्रभावित कर लिया था; पर उसके मन में भारत के प्रति घृणा भरी थी। वह नासिक के पवित्र रामकुंड में घोड़े पर चढ़कर घूमता था; पर भयवश कोई बोलता नहीं था।

उन दिनों नासिक में वीर सावरकर की ‘अभिनव भारत’ नामक संस्था सक्रिय थी। लोकमान्य तिलक के प्रभाव के कारण गणेशोत्सव और शिवाजी जयन्ती आदि कार्यक्रम भी पूरे उत्साह से मनाये जाते थे। इन सबमें स्थानीय युवक बढ़-चढ़कर भाग लेते थे।

विजयादशमी पर नासिक के लोग नगर की सीमा से बाहर कालिका मन्दिर पर पूजा करने जाते थे। युवकों ने योजना बनायी कि सब लोग इस बार वन्देमातरम् का उद्घोष करते हुए मन्दिर चलेंगे। जब जैक्सन को यह पता लगा, तो उसने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

नासिक के वकील वामन सखाराम खेर स्वतन्त्रता सेनानियों के मुकदमे निःशुल्क लड़ते थे। जैक्सन ने उनकी डिग्री जब्त कर उन्हें जेल में डाल दिया। उसने ताम्बे शास्त्री नामक विद्वान के प्रवचनों पर रोक लगा दी; क्योंकि वे कथा में अंग्रेजों की तुलना रावण और कंस जैसे अत्याचारी शासकों से करते थे। बाबाराव सावरकर ने वीरतापूर्ण गीतों की एक पुस्तक प्रकाशित की थी। इस पर उन्हें कालेपानी की सजा देकर अन्दमान भेज दिया गया।

जैक्सन की इन करतूतों से युवकों का खून खौलने लगा। वे उसे ठिकाने लगाने की सोचने लगे। अनन्त कान्हेरे भी इन्हीं में से एक थे। कोंकण निवासी अनन्त अपने मामा के पास औरंगाबाद में रहकर पढ़ रहे थे। वह और उनका मित्र गंगाराम देश के लिए मरने की बात करते रहते थे। एक बार गंगाराम ने उनकी परीक्षा लेने के लिए लैम्प की गरम चिमनी पकड़ने को कहा। अनन्त की उँगलियाँ जल गयीं; पर उन्होंने चिमनी को नहीं छोड़ा।

यह देखकर गंगाराम ने अनन्त को विनायक देशपांडे, गणू वैद्य, दत्तू जोशी, अण्णा कर्वे आदि से मिलवाया। देशपांडे ने अनन्त को एक पिस्तौल दी। अनन्त ने कई दिन जंगल में जाकर निशानेबाजी का अभ्यास किया। अब उन्हें तलाश थी, तो सही अवसर की। वह जानते थे कि जैक्सन के वध के बाद उन्हें निश्चित ही फाँसी होगी। उन्होंने बलिपथ पर जाने की तैयारी कर ली और एक चित्र खिंचवाकर स्मृति स्वरूप अपने घर भेज दिया।

अन्ततः वह शुभ दिन आ गया। जैक्सन का स्थानान्तरण मुम्बई के लिए हो गया था। उसके समर्थकों ने विजयानन्द नाटकशाला में विदाई कार्यक्रम का आयोजन किया। अनन्त भी वहाँ पहुँच गये। जैसे ही जैक्सन ने प्रवेश किया, अनन्त ने चार गोली उसके सीने में दाग दी। जैक्सन हाय कह कर वहीं ढेर हो गया। उस दिन देशपांडे और कर्वे भी पिस्तौल लेकर वहाँ आये थे, जिससे अनन्त से बच जाने पर वे जैक्सन को ढेर कर सकें।

अनन्त को पकड़ लिया गया। उन्होंने किसी वकील की सहायता लेने से मना कर दिया। इस कांड में अनेक लोग पकड़े गये। अनन्त के साथ ही विनायक देशपांडे और अण्णा कर्वे को 19 अप्रैल, 1910 को प्रातः ठाणे के कारागार में फाँसी दे दी गयी।

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