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भारतीय थल सेना दिवस प्रत्येक वर्ष 15 जनवरी को मनाया जाता है। वस्तुत: ‘थल सेना दिवस’ देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति देने वाले वीर सपूतों के प्रति श्रद्धांजलि देने का दिन है। यह दिन देश के प्रति समर्पण व बलिदान होने की प्ररेणा का पवित्र अवसर है।

भारत में ‘थल सेना दिवस’ देश के जांबाज रणबांकुरों की शहादत पर गर्व करने का एक विशेष मौका है। 15 जनवरी, 1949 के बाद से ही भारत की सेना ब्रिटिश सेना से पूरी तरह मुक्त हुई थी, इसीलिए 15 जनवरी को “थल सेना दिवस” घोषित किया गया।  यह दिवस भारतीय सेना की आज़ादी का जश्न है। यह वही आज़ादी है, जो वर्ष 1949 में 15 जनवरी को भारतीय सेना को मिली थी।

इस दिन के.एम. करिअप्पा को भारतीय सेना का ‘कमांडर-इन-चीफ़’ बनाया गया था। इस तरह लेफ्टिनेंट करिअप्पा लोकतांत्रिक भारत के पहले सेना प्रमुख बने थे। इसके पहले यह अधिकार ब्रिटिश मूल के फ़्राँसिस बूचर के पास था।

देश की सीमाओं की चौकसी करने वाली भारतीय सेना का गौरवशाली इतिहास रहा है। इस दिन देश की राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट पर बनी अमर जवान ज्योति पर शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है।  दिल्ली में आयोजित परेड के दौरान अन्य देशों के सैन्य अथितियों और सैनिकों के परिवारों वालों को बुलाया जाता है। ‘थल सेना दिवस’ पर शाम को सेना प्रमुख चाय पार्टी आयोजित करते हैं, जिसमें तीनों सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिमंडल के सदस्य शामिल होते हैं।

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किसी भी व्यक्ति के जीवन में नेत्रों का अत्यधिक महत्व है। नेत्रों के बिना उसका जीवन अधूरा है; पर नेत्र न होते हुए भी अपने जीवन को समाज सेवा का आदर्श बना देना सचमुच किसी दैवी प्रतिभा का ही काम है। जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ऐसे ही व्यक्तित्व हैं।

स्वामी जी का जन्म ग्राम शादी खुर्द (जौनपुर, उ.प्र.) में 14 जनवरी, 1950 को पं. राजदेव मिश्र एवं शचीदेवी के घर में हुआ था। जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक अति प्रतिभावान होगा; पर दो माह की अवस्था में इनके नेत्रों में रोहु रोग हो गया। नीम हकीम के इलाज से इनकी नेत्र ज्योति सदा के लिए चली गयी। पूरे घर में शोक छा गया; पर इन्होंने अपने मन में कभी निराशा के अंधकार को स्थान नहीं दिया।

चार वर्ष की अवस्था में ये कविता करने लगे। 15 दिन में गीता और श्रीरामचरित मानस तो सुनने से ही याद हो गये। इसके बाद इन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरणाचार्य, विद्या वारिधि (पी-एच.डी) व विद्या वाचस्पति (डी.लिट) जैसी उपाधियाँ प्राप्त कीं। छात्र जीवन में पढ़े एवं सुने गये सैकड़ों ग्रन्थ उन्हें कण्ठस्थ हैं। हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी सहित 14 भाषाओं के वे ज्ञाता हैं।

अध्ययन के साथ-साथ मौलिक लेखन के क्षेत्र में भी स्वामी जी का काम अद्भुत है। इन्होंने 80 ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में जहाँ उत्कृष्ट दर्शन और गहन अध्यात्मिक चिन्तन के दर्शन होते हैं, वहीं करगिल विजय पर लिखा नाटक ‘उत्साह’ इन्हें समकालीन जगत से जोड़ता है। सभी प्रमुख उपनिषदों का आपने भाष्य किया है। ‘प्रस्थानत्रयी’ के इनके द्वारा किये गये भाष्य का विमोचन श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था।

बचपन से ही स्वामी जी को चौपाल पर बैठकर रामकथा सुनाने का शौक था। आगे चलकर वे भागवत, महाभारत आदि ग्रन्थों की भी व्याख्या करने लगे। जब समाजसेवा के लिए घर बाधा बनने लगा, तो इन्होंने 1983 में घर ही नहीं, अपना नाम गिरिधर मिश्र भी छोड़ दिया।

स्वामी जी ने अब चित्रकूट में डेरा लगाया और श्री रामभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गये। 1987 में इन्होंने यहाँ तुलसी पीठ की स्थापना की। 1998 के कुम्भ में स्वामी जी को जगद्गुरु तुलसी पीठाधीश्वर घोषित किया गया।

तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा के आग्रह पर स्वामी जी ने इंडोनेशिया में आयोजित अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। इसके बाद वे मारीशस, सिंगापुर, ब्रिटेन तथा अन्य अनेक देशों के प्रवास पर गये।

स्वयं नेत्रहीन होने के कारण स्वामी जी को नेत्रहीनों एवं विकलांगों के कष्टों का पता है। इसलिए उन्होंने चित्रकूट में विश्व का पहला आवासीय विकलांग विश्विविद्यालय स्थापित किया। इसमें सभी प्रकार के विकलांग शिक्षा पाते हैं। इसके अतिरिक्त विकलांगों के लिए गोशाला व अन्न क्षेत्र भी है। राजकोट (गुजरात) में महाराज जी के प्रयास से सौ बिस्तरों का जयनाथ अस्पताल, बालमन्दिर, ब्लड बैंक आदि का संचालन हो रहा है।

विनम्रता एवं ज्ञान की प्रतिमूर्ति स्वामी रामभद्राचार्य जी अपने जीवन दर्शन को निम्न पंक्तियों में व्यक्त करते हैं।

मानवता है मेरा मन्दिर, मैं हूँ उसका एक पुजारी
हैं विकलांग महेश्वर मेरे, मैं हूँ उनका एक पुजारी।

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मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व उत्तर भारत विशेषतः पंजाब में लोहड़ी का त्यौहार मनाया जाता है। किसी न किसी नाम से मकर संक्रांति के दिन या उससे आस-पास भारत के विभिन्न प्रदेशों में कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दिन तमिल हिंदू पोंगल का त्यौहार मनाते हैं। इस प्रकार लगभग पूर्ण भारत में यह विविध रूपों में मनाया जाता है।

मकर संक्रांति की पूर्व संध्या को  पंजाब, हरियाणा व पड़ोसी राज्यों में बड़ी धूम-धाम से ‘लोहड़ी ‘  का त्यौहार मनाया जाता है।  पंजाबियों  के लिए लोहड़ी खास महत्व रखती है।  लोहड़ी से कुछ दिन पहले से ही  छोटे बच्चे  लोहड़ी के गीत गाकर लोहड़ी हेतु लकड़ियां, मेवे, रेवड़ियां, मूंगफली  इकट्ठा करने लग जाते हैं।  लोहड़ी की संध्या को आग जलाई जाती है। लोग अग्नि के चारो ओर चक्कर काटते हुए नाचते-गाते हैं व आग मे रेवड़ी, मूंगफली, खील, मक्की के दानों की आहुति देते हैं। आग के चारो ओर बैठकर लोग आग सेंकते हैं व रेवड़ी,  खील, गज्जक, मक्का खाने का आनंद लेते हैं। जिस घर में नई शादी हुई हो या बच्चा हुआ हो उन्हें विशेष तौर पर बधाई दी जाती है।  प्राय:  घर मे नव वधू या और बच्चे  की पहली लोहड़ी बहुत विशेष होती है।

लोहड़ी को पहले तिलोड़ी कहा जाता था। यह शब्द तिल तथा रोड़ी (गुड़ की रोड़ी) शब्दों के मेल से बना है, जो समय के साथ बदल कर लोहड़ी के रुप में प्रसिद्ध हो गया।

ऐतिहासिक संदर्भ –  किसी समय में सुंदरी एवं मुंदरी नाम की दो अनाथ लड़कियां थीं जिनको उनका चाचा विधिवत शादी न करके एक राजा को भेंट कर देना चाहता था। उसी समय में दुल्ला भट्टी नाम का एक नामी डाकू हुआ है। उसने दोनों लड़कियों,  ‘सुंदरी एवं मुंदरी’ को जालिमों से छुड़ा कर उन की शादियां कीं। इस मुसीबत की घडी में दुल्ला भट्टी ने लड़कियों की मदद की और लडके वालों को मना कर एक जंगल में आग जला कर सुंदरी और मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहते हैं दुल्ले ने शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी।

जल्दी-जल्दी में शादी की धूमधाम का इंतजाम भी न हो सका सो दुल्ले ने उन लड़कियों की झोली में एक सेर शक्कर डालकर ही उनको विदा कर दिया। भावार्थ यह है कि डाकू हो कर भी  दुल्ला भट्टी ने निर्धन लड़कियों के लिए पिता की भूमिका निभाई।

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‘चटगांव क्रांति’ के नायक सूर्य सेन जिन्हे अंग्रेजो ने बेहोशी की हालत में फांसी पर लटकाया था.

मास्टर सूर्य सेन का जन्म 22 मार्च, 1894 को चटगांव, बंगाल में हुआ था। सूर्य सेन की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा चटगांव में ही हुई। जब वह इंटरमीडिएट के विद्यार्थी थे, तभी अपने एक राष्ट्र प्रेमी शिक्षक की प्रेरणा से वह बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के सदस्य बन गए। इस समय उनकी आयु 22 वर्ष थी। सूर्यसेन पेशे से टीचर थे। इसलिए उन्हें ‘मास्टर दा’ के नाम से भी जाना जाता था।

मास्टर सूर्यसेन ने चटगांव से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ खुद की आर्मी तैयार की। नाम रखा ‘इंडियन रिपब्लिक आर्मी।’ धीरे-धीरे 500 सदस्य इससे जुड़ गए। इनमें लड़के व लड़कियां दोनों ही शामिल थे। फिर उन्हें हथियारों की ज़रूरत महसूस हुई। इसके बाद सूर्यसेन ने 18 अप्रैल 1930 की रात चटगांव के दो शस्त्रागारों को लूटने का ऐलान कर दिया।

योजनानुसार 18 अप्रैल, 1930 को सैनिक वस्त्रों में इन युवाओं ने गणेश घोष और लोकनाथ बल के नेतृत्व में दो दल बनाये। गणेश घोष के दल ने चटगांव के पुलिस शस्त्रागार पर और लोकनाथ जी के दल ने चटगांव के सहायक सैनिक शस्त्रागार पर कब्ज़ा कर लिया। दुर्भाग्यवश उन्हें बंदूकें तो मिलीं, किंतु उनकी गोलियां नहीं मिल सकीं। क्रांतिकारियों ने टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट दिए और रेलमार्गों को रोक दिया। एक प्रकार से चटगांव पर क्रांतिकारियों का ही अधिकार हो गया। इसके बाद यह दल पुलिस शस्त्रागार के सामने इकठ्ठा हुआ, जहां मास्टर सूर्य सेन ने अपनी इस सेना से विधिवत सैन्य सलामी ली, राष्ट्रीय ध्‍वज फहराया और भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की।

22 अप्रैल, 1930 को हजारों अंग्रेज सैनिकों ने जलालाबाद पहाड़ियों को घेर लिया, जहां क्रांतिकारियों ने शरण ले रखी थी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी क्रांतिकारियों ने समर्पण नहीं किया और हथियारों से लैस अंग्रेज़ी सेना से गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया। इन क्रांतिकारियों की वीरता और गोरिल्ला युद्ध-कौशल का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इस जंग में जहां 80 से भी ज़्यादा अंग्रेज़ सैनिक मारे गए, वहीं मात्र 12 क्रांतिकार ही शहीद हुए। इसके बाद मास्टर सूर्य सेन किसी प्रकार अपने कुछ साथियों सहित पास के गांव में चले गए। लेकिन इनमें से कुछ दुर्भाग्य से पकड़े भी गए।

दुर्भाग्यवश उन्हीं का एक धोखेबाज साथी, जिसका नाम नेत्र सेन था, ईनाम के लालच में अंग्रेजों से मिल गया। जब मास्टर सूर्य सेन उसके घर में शरण लिए हुए थे, तभी उसकी मुखबिरी पर 16 फ़रवरी, 1933 को पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकार भारत का महान नायक पकड़ा गया। नेत्र सेन की पत्नी अपने पति के इस दुष्कर्म पर इतनी अधिक दु:खी और लज्जित हुई कि जब उसके घर में उसी के सामने ही एक देशप्रेमी ने उसके पति की हत्या कर दी तो उसने कोई विरोध नहीं किया।

तारकेश्वर दस्तीदार ने सूर्य सेन को अंग्रेजों से छुड़ाने की योजना बनाई, लेकिन योजना पर अमल होने से पहले ही यह भेद खुल गया और तारकेश्वर अन्य साथियों के साथ पकड़ लिए गए। 12 जनवरी, 1934 को सूर्य सेन को तारकेश्वर के साथ फांसी की सज़ा दी गई, लेकिन फांसी से पूर्व उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गयीं। निर्दयतापूर्वक हथौड़े से उनके दांत तोड़ दिए गए, नाखून खींच लिए गए, और जब वह बेहोश हो गए तो उन्हें अचेतावस्था में ही खींचकर फांसी के तख्ते तक लाया गया। यहां तक की उनकी मृत देह को भी उनके परिजनों को नहीं सौंपा गया और उसे धातु के बक्से में बंद करके ‘बंगाल की खाड़ी’ में फेंक दिया गया।

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भारत की आजादी के लिए भारत में हर ओर लोग प्रयत्न कर ही रहे थे; पर अनेक वीर ऐसे थे, जो विदेशों में आजादी की अलख जगा रहे थे। वे भारत के क्रान्तिकारियों को अस्त्र-शस्त्र भेजते थे। ऐसे ही एक क्रान्तिवीर थे सरदार मेवा सिंह, जो कनाडा में रहकर यह काम कर रहे थे।

मेवा सिंह थे तो मूलतः पंजाब के, पर वे अपने अनेक मित्र एवं सम्बन्धियों की तरह काम की खोज में कनाडा चले गये थे। उनके दिल में देश को स्वतन्त्र कराने की आग जल रही थी। प्रवासी सिक्खों को अंग्रेज अधिकारी अच्छी निगाह से नहीं देखते थे।

हॉप्सिन नामक एक अधिकारी ने एक देशद्रोही बेलासिंह को अपने साथ मिलाकर दो सगे भाइयों भागासिंह और वतनसिंह की गुरुद्वारे में हत्या करा दी। इससे मेवा सिंह की आँखों में खून उतर आया। उसने सोचा यदि हॉप्सिन को सजा नहीं दी गयी, तो वह इसी तरह अन्य भारतीयों की भी हत्याएँ कराता रहेगा।

मेवा सिंह ने सोचा कि हॉप्सिन को दोस्ती के जाल में फँसाकर मारा जाये। इसलिए उसने हॉप्सिन से अच्छे सम्बन्ध बना लिये। हॉप्सिन ने मेवा सिंह को लालच दिया कि यदि वह बलवन्तसिंह को मार दे, तो उसे अच्छी नौकरी दिला दी जायेगी। सेवासिंह इसके लिए तैयार हो गया। हॉप्सिन ने उसे इसके लिए एक पिस्तौल और सैकड़ों कारतूस दिये। सेवासिंह ने उसे वचन दिया कि शिकार कर उसे पिस्तौल वापस दे देगा।

अब मेवा सिंह ने अपना पैसा खर्च कर सैकड़ों अन्य कारतूस भी खरीदे और निशानेबाजी का खूब अभ्यास किया। जब उनका हाथ सध गया, तो वह हॉप्सिन की कोठी पर जा पहुँचा। उनके वहाँ आने पर कोई रोक नहीं थी। चौकीदार उन्हें पहचानता ही था। मेवा सिंह के हाथ में पिस्तौल थी।

यह देखकर हॉप्सिन ने ओट में होकर उसका हाथ पकड़ लिया। मेवा सिंह एक बार तो हतप्रभ रह गया; पर फिर संभल कर बोला, ‘‘ये पिस्तौल आप रख लें। इसके कारण लोग मुझे अंग्रेजों का मुखबिर समझने लगे हैं।’’ इस पर हॉप्सिन ने क्षमा माँगते हुए उसे फिर से पिस्तौल सौंप दी।

अगले दिन न्यायालय में वतनसिंह हत्याकांड में गवाह के रूप में मेवा सिंह की पेशी थी। हॉप्सिन भी वहाँ मौजूद था। जज ने मेवा सिंह से पूछा, जब वतनसिंह की हत्या हुई, तो क्या तुम वहीं थे। मेवा सिंह ने हाँ कहा। जज ने फिर पूछा, हत्या कैसे हुई ? मेवा सिंह ने देखा कि हॉप्सिन उसके बिल्कुल पास ही है। उसने जेब से भरी हुई पिस्तौल निकाली और हॉप्सिन पर खाली करते हुए बोला – इस तरह। हॉप्सिन का वहीं प्राणान्त हो गया।

न्यायालय में खलबली मच गयी। मेवा सिंह ने पिस्तौल हॉप्सिन के ऊपर फेंकी और कहा, ‘‘ले सँभाल अपनी पिस्तौल। अपने वचन के अनुसार मैं शिकार कर इसे लौटा रहा हूँ।’’ मेवा सिंह को पकड़ लिया गया। उन्होंने भागने या बचने का कोई प्रयास नहीं किया; क्योंकि वह तो बलिदानी बाना पहन चुके थे।

उन्होंने कहा, ‘‘मैंने हॉप्सिन को जानबूझ कर मारा है। यह दो देशभक्तों की हत्या का बदला है। जो गालियाँ भारतीयों को दी जाती है, उनकी कीमत मैंने वसूल ली है। जय हिन्द।’’

उस दिन के बाद पूरे कनाडा में भारतीयों को गाली देेने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। 11 जनवरी, 1915 को इस वीर को बैंकूवर की जेल में फाँसी दे दी गयी।

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10-01-2025

હિંદુ આધ્યાત્મિક અને સેવા સંસ્થાન દ્વારા આયોજિત હિંદુ અધ્યાત્મિક અને સેવા મેળાના કાર્યાલયનું ઉદ્ઘાટન 09-01-2025 ના રોજ પ.પૂ. પરમાત્માનંદ સરસ્વતીજી (અધ્યક્ષ, શિવાનંદ આશ્રમ, આર્ષ વિદ્યામંદિર), પ.પૂ. મહંત શ્રી દયાલપુરી બાપુ (શ્રી હર ગંગેશ્વર મહાદેવ, હથીદરા), આચાર્ય ગોસ્વામી રણછોડલાલજી (શ્રી આભરણાચાર્ય) ગોસ્વામી હવેલી, અમદાવાદ, શ્રી મિહિરભાઈ પંડ્યા (ઝાયરા ડાયમંડ), શ્રીમતી નીરીજાબેન ગુપ્તા (ઉપકુલપતિ, ગુજરાત યુનીવર્સીટી)ની ઉપસ્થિતિમાં કરવામાં આવ્યું હતું.
કાર્યક્રમમાં ઉપસ્થિત હિંદુ આધ્યાત્મિક અને સેવા સંસ્થાના માર્ગદર્શક અને ગુજરાત સાહિત્ય અકાદમીના અધ્યક્ષ શ્રી ભાગ્યેશ જહાએ કહ્યું કે હિંદુની અવધારણા છે અંધકારમાંથી પ્રકાશ તરફ જવું, જ્યારે સમગ્ર વિશ્વ આઈડેન્ટીટી ક્રાઈસીસમાંથી પસાર થઈ રહ્યું છે ત્યારે હિંદુ શું કરે છે? ભારત શું કરે છે? અને ભારતમાં ગુજરાત શું કરે છે? તે તરફ સૌની દૃષ્ટિ છે.
આ અવસરે શ્રીમતી નીરીજાબેન ગુપ્તાએ પોતાના સંબોધનમાં જણાવ્યું કે આપણી જે આખી સંસ્કૃતિ છે એ સંસ્કૃતિની એક મહાગાથા છે અને આજે આપણે બૌદ્ધિક, સંસ્કૃતિક, શારીરિક આક્રમણમાં અટવાઈ ગયા છીએ જો ત્યારે આપણી મહાગાથાને સમજી લઈએ તો કોઈપણ જાતનો મુંજવણમાં પડીએ જ નહિ. 
આચાર્ય ગોસ્વામી રણછોડલાલજીએ (શ્રી આભરણાચાર્ય) પોતાના આશીર્વચનમાં જણાવ્યું કે આપણે ત્યાં ધર્મની પરિભાષા જ એ છે કે જે આચાર વિચાર આપણે ધારણ કરીએ છીએ એજ ધર્મ છે. આ કાર્ય ખુબજ સુંદર થાય, બધા લોકો આનો લાભ લઇ શકે, સમાજને સાચી દિશા મળે તેવી હું મારી શુભેચ્છાઓ પ્રકટ કરું છું.
પ.પૂ. મહંત શ્રી દયાલપુરી બાપુએ (શ્રી હર ગંગેશ્વર મહાદેવ, હથીદરા) પોતાના આશીર્વચનમાં કહ્યું કે આપણી સંતાનોમાં આપણી સંસ્કૃતિના વિચાર સુદ્રઢ થાય એના માટેનું આ સુંદર આયોજન કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રમાણે જ જો આપણે જતન કરીશું તો સો ટકા આપણે ભારત ને વિશ્વગુરૂના સ્થાને સ્થાપિત કરી શકીશું. 
મુખ્ય વક્તા પ.પૂ. પરમાત્માનંદ સરસ્વતીજીએ (અધ્યક્ષ, શિવાનંદ આશ્રમ, આર્ષ વિદ્યામંદિર) પોતાના આશીર્વચનમાં કહ્યું કે માણસ ક્યારે માણસ બનેલો કહેવાય જયારે એના જીવનમાં મર્યાદા આવે ત્યારે એ માણસ કહેવાય. શું કરવું અને શું ન કરવું એનું નામ જ જીવન શિક્ષણ છે. આજે પર કેપિટા આવક વધારવાની વ્યવસ્થા છે પરંતુ પર કેપિટા સંસ્કાર વધારવાની કોઇ વ્યવસ્થા નથી, જે ઉભી કરવી પડશે, રાષ્ટ્ર ભાવના પ્રસ્થાપિત કરવાની છે. આર્થિક માળખુ છે પરંતુ સામાજીક, ધાર્મિક સાંસ્કૃતિક માળખા ઘસાતા જાય છે તેને જાળવવાનો પ્રયાસ છે હિંદુ આધ્યાત્મિક અને સેવા મેળો.  
હિંદુ આધ્યાત્મિક અને સેવા મેળાના પ્રાંત અધ્યક્ષ શ્રી તુલસીરામ ટેકવાણીએ સ્વાગત ઉદ્બોધન કર્યું હતું જ્યારે નારણભાઈ મેઘાણીએ (પ્રભારી, પશ્ચિમ ક્ષેત્ર, હિંદુ આધ્યાત્મિક અને સેવા સંસ્થાન) મેળો યોજાવાનો છે તે સ્થાનમાં યોજાનારા કાર્યક્રમોનો ભૌગોલિક પરિચય આપ્યો હતો. હિંદુ આધ્યાત્મિક અને સેવા મેળાના સચિવ ઘનશ્યામભાઈ વ્યાસે ૨૩ થી ૨૬ જાન્યુઆરી ૨૦૨૫ દરમિયાન પ્રતિદિન આયોજિત થનારા કાર્યક્રમોની વિસ્તૃત જાણકારી આપી હતી. આ કાર્યક્રમમાં અનેક મહાનુભાવો તથા મોટી સંખ્યામાં પ્રબુદ્ધ નાગરિકો ઉપસ્થિત રહ્યા હતા.
​अनेक भारतीय ऐसे हैं जिन्हें विदेशों में तो सम्मान मिलता है; पर अपने देशवासी उन्हें प्रायः स्मरण नहीं करते। डा. राधाबिनोद पाल वैश्विक ख्याति के ऐसे ही विधिवेत्ता तथा न्यायाधीश थे, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान के विरुद्ध चलाये गये अन्तरराष्ट्रीय मुकदमे में मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध निर्णय देने का साहस किया था, जबकि उस समय विजयी होने के कारण मित्र राष्ट्रों का दुःसाहस बहुत बढ़ा हुआ था।

मित्र राष्ट्र अर्थात अमरीका, ब्रिटेन, फ्रान्स आदि देश जापान को दण्ड देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने युद्ध की समाप्ति के बाद ‘क्लास ए वार क्राइम्स’ नामक एक नया कानून बनाया, जिसके अन्तर्गत आक्रमण करने वाले को मानवता तथा शान्ति के विरुद्ध अपराधी माना गया था।

इसके आधार पर जापान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री हिदेकी तोजो तथा दो दर्जन अन्य नेता व सैनिक अधिकारियों को युद्ध अपराधी बनाकर कटघरे में खड़ा कर दिया। 11 विजेता देशों द्वारा 1946 में निर्मित इस अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण (इण्टरनेशनल मिलट्री ट्रिब्यूनल फार दि ईस्ट) में डा. राधाविनोद पाल को ब्रिटिश सरकार ने भारत का प्रतिनिधि बनाया था।

इस मुकदमे में दस न्यायाधीशों ने तोजो को मृत्युदण्ड दिया; पर डा. राधाविनोद पाल ने न केवल इसका विरोध किया, बल्कि इस न्यायाधिकरण को ही अवैध बताया। इसलिए जापान में आज भी उन्हें एक महान् व्यक्ति की तरह सम्मान दिया जाता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के लगभग 20 लाख सैनिक तथा नागरिक मारे गये थे। राजधानी टोक्यो में उनका स्मारक बना है। इसे जापान के लोग मन्दिर की तरह पूजते हैं। यासुकूनी नामक इस समाधि स्थल पर डा. राधाविनोद का स्मारक भी बना है।

जापान के सर्वोच्च धर्मपुरोहित नानबू तोशियाकी ने डा. राधाविनोद की प्रशस्ति में लिखा है कि – “हम यहाँ डा. पाल के जोश और साहस का सम्मान करते हैं, जिन्होंने वैधानिक व्यवस्था और ऐतिहासिक औचित्य की रक्षा की। हम इस स्मारक में उनके महान कृत्यों को अंकित करते हैं, जिससे उनके सत्कार्यों को सदा के लिए जापान की जनता के लिए धरोहर बना सकें। आज जब मित्र राष्ट्रों की बदला लेने की तीव्र लालसा और ऐतिहासिक पूर्वाग्रह ठण्डे हो रहे हैं, सभ्य संसार में डा0 राधाविनोद पाल के निर्णय को सामान्य रूप से अन्तरराष्ट्रीय कानून का आधार मान लिया गया है।”

डा. पाल का जन्म 27 जनवरी, 1886 को हुआ था। कोलकाता के प्रेसिडेन्सी कॉलिज तथा कोलकाता विश्वविद्यालय से कानून की शिक्षा पूर्ण कर वे इसी विश्वविद्यालय में 1923 से 1936 तक अध्यापक रहे। 1941 में उन्हें कोलकाता उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त किया गया। वह तत्कालीन अंग्रेज शासन के सलाहकार भी रहे।

यद्यपि उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय कानून का औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था, फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब जापान के विरुद्ध ‘टोक्यो ट्रायल्ज’ नामक मुकदमा शुरू किया गया, तो उन्हें इसमें न्यायाधीश बनाया गया।

डा. पाल ने अपने निर्णय में लिखा कि किसी घटना के घटित होने के बाद उसके बारे में कानून बनाना नितान्त अनुचित है। उनके इस निर्णय की सभी ने सराहना की।  डा. राधाबिनोद पाल ने  10 जनवरी, 1967 को यह संसार छोड़ दिया।

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डॉ. हरगोविंद खुराना का जन्म अविभाजित भारतवर्ष के रायपुर (जिला मुल्तान, पंजाब) नामक कस्बे में हुआ था। प्रतिभावान् विद्यार्थी होने के कारण विद्यालय तथा कालेज में इन्हें छात्रवृत्तियाँ मिलीं। पंजाब विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी. एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में एम. एस-सी. (ऑनर्स) परीक्षाओं में ये उत्तीर्ण हुए तथा भारत सरकार से छात्रवृत्ति पाकर इंग्लैंड गए।

यह बात सन 1946 की है.  डॉक्टर खुराना ने इंग्लैंड के लीवर पूल विश्वविद्यालय में डॉक्टर रॉबर्टसन की देखरेख में जीव विज्ञान पर तरह-तरह के शोध किए. सन 1948 में उन्हें उस विश्वविद्यालय से पीएच. डी. की डिग्री प्राप्त हुई. सन 1960 में उन्हें ‘प्रोफेसर इंस्टीट्युट ऑफ पब्लिक सर्विस’ कनाडा में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया. कनाडा से खुराना को ‘मर्क एवार्ड’ भी प्राप्त हुआ था. उनकी ख्याति अमेरिका तक पहुंच गई थी. सन 1958 में उनके पास अमेरिका संस्था ‘रॉकफेलर’ का पत्र आया. इस संस्थान ने उन्हें अपने यहां एक अतिथि प्रोफेसर के रूप में बुलाया था. खुराना वहां गए और विज्ञान से संबधित अपने भाषण दिए. संस्था के निदेशक पर उनकी बातों का गहरा असर पड़ा. निदेशक ने उनके सामने नियमित रूप से संस्था में प्रोफेसर का काम करने के लिए अपना प्रस्ताव रखा. उनके निवेदन पर डॉ. खुराना उस संस्था से जुड़ गए. सन 1960 में उन्होंने कनाडा छोड़कर अमेरिका को अपना कार्यक्षेत्र बनाया.

सन 1968 में खुराना को ‘नोबेल पुरस्कार’ के लिए चुना गया. संपूर्ण भारतवर्ष खुराना की इस सफलता पर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा था. खुराना नोबेल पुरस्कार पाने वाले भारतीय मूल के तीसरे भारतीय हैं. यह पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों सम्मिलित रूप से प्रदान किया गया था. जिसमें खुराना के अलावा डॉ. राबर्ट होले और डॉ. मार्शल निरेनबर्ग शामिल थे. तीनों वैज्ञानिकों ने डी.एन.ए. अणु की संरचना को स्पष्ट किया था और यह भी बताया था कि डी.एन.ए. प्रोटीन्स का संश्लेषण किस प्रकार करता है. मनुष्य को लंबे समय तक स्वस्थ रखने की विधियों को खोजने में जिन्स सहयोगी हो सकता है. इन सभी दृष्टि से मानव जीवन में जिन्स का विशेष महत्त्व है.

सन 1964 में डॉक्टर खुराना ने अमेरिका की नागरिकता प्राप्त की थी. इसलिए सन 1968 में उन्होंने जब नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया तो अमेरिका ने उन्हें ‘नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंस’ की सदस्यता प्रदान की यह सम्मान केवल विशिष्ट अमेरिका वैज्ञानिकों को ही दिया जाता है.

 1857 का स्वाधीनता संग्राम भले ही सफल न हुआ हो; पर उसने सिद्ध कर दिया कि देश का कोई भाग ऐसा नहीं है, जहां स्वतन्त्रता की अभिलाषा न हो तथा लोग स्वाधीनता के लिए मर मिटने का तैयार न हों।

मध्य प्रदेश में इंदौर और उसके आसपास का क्षेत्र मालवा कहलाता है। 1857 में यह पूरा क्षेत्र अंग्रेजों के विरुद्ध दहक रहा था। यहां का महिदपुर सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र था। इसलिए अंग्रेजों ने यहां छावनी की स्थापना की थी, जिसे ‘यूनाइटेड मालवा कांटिनजेंट, महिदपुर हेडक्वार्टर’ कहा जाता था।

इंदौर में नागरिकों ने जुलाई 1857 में जैसा उत्साह दिखाया था, उसका प्रभाव महिदपुर छावनी के सैनिकों पर भी साफ दिखाई देता था। वे एकांत में इस बारे में उग्र बातें करते रहते थे। यह देखकर अंग्रेजों ने बड़े अधिकारियों तथा  अपने खास चमचों को सावधान कर दिया था।

छावनी में भारतीय सैनिकों के कमांडर शेख रहमत उल्ला तथा उज्जैन स्थित सिंधिया के सरसूबा आपतिया की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। महिदपुर के अमीन सदाशिवराव की भूमिका भी इस बारे में उल्लेखनीय है। उन्होंने क्रांति के लिए बड़ी संख्या में सैनिकों की भर्ती की तथा उन्हें हर प्रकार का सहयोग दिया। अंग्रेज चौकन्ने तो थे; पर उन्हें यह अनुमान नहीं था कि अंदर ही अंदर इतना भीषण लावा खौल रहा है।

8 नवम्बर, 1857 को निर्धारित योजनानुसार प्रातः 7.30 बजे दो हजार क्रांतिकारियों ने ऐरा सिंह के नेतृत्व में मारो-काटो का उद्घोष करते हुए महिदपुर छावनी पर हमला बोल दिया। इन सशस्त्र क्रांतिवीरों में उज्जैन व खाचरोद की ओर से आये मेवाती सैनिकों के साथ ही महिदपुर के नागरिक भी शामिल थे। यह देखकर छावनी में तैनात देशप्रेमी सैनिक भी इनके साथ मिल गये।

अंग्रेज अधिकारी सावधान तो थे ही, अतः भीषण युद्ध छिड़ गया; पर भारतीय सैनिकों का उत्साह अंग्रेजों पर भारी पड़ रहा था। कई घंटे के संग्राम में डा0 कैरी, लेफ्टिनेंट मिल्स, सार्जेण्ट मेजर ओ कॉनेल तथा मानसन मार डाले गये। मेजर टिमनिस की पत्नी को उसके दर्जी ने अपनी झोंपड़ी में छिपा लिया, इससे उसकी जान बच गयी। इस युद्ध में भारतीय वीरों का पलड़ा भारी रहा। जो अंग्रेज अधिकारी बच गये, उन्हें इंदौर के महाराजा तुकोजीराव होल्कर ने शरण देकर उनके भोजन तथा कपड़ों का प्रबन्ध किया।

परन्तु संगठन एवं कुशल नेतृत्व के अभाव, अधूरी योजना तथा समय  से पूर्व ही विस्फोट हो जाने के कारण 1857 का यह स्वाधीनता संग्राम सफल नहीं हो सका। धीरे-धीरे अंग्रेजों ने फिर से सभी छावनियों पर कब्जा कर लिया। जिन सैनिकों ने अत्यधिक उत्साह दिखाया था, उन्हें नौकरी से हटा दिया। कुछ को जेलों में ठूंस दिया तथा बहुतों को फांसी पर लटकाकर पूरे देश में एक बार फिर से आतंक एवं भय का वातावरण बना दिया।

महिदपुर के इस संघर्ष में यद्यपि जीत भारतीय पक्ष की हुई और अंग्रेजों को मैदान छोड़कर भागना पड़ा; पर अंग्रेजो की तरह ही बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक भी वीरगति को प्राप्त हुए। आगे चलकर इस युद्ध के लिए वातावरण बनाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले अमीन सयाजीराव भी गिरफ्तार कर लिये गये। अंग्रेजों ने उन्हें देशभक्ति का श्रेष्ठतम पुरस्कार देते हुए सात जनवरी, 1858 को तोप के सामने खड़ाकर गोला दाग दिया।

वीर अमीन सयाजीराव की देह एवं रक्त का कण-कण उस पावन मातृभूमि पर छितरा गया, जिसकी पूजा करने का उन्होंने व्रत लिया था।

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​यदि किसी व्यक्ति का कोई अंग जन्म से न हो, या किसी दुर्घटना में वह अपंग हो जाए, तो उसकी पीड़ा समझना बहुत कठिन है। अपने आसपास हँसते-खेलते, दौड़ते-भागते लोगों को देखकर उसका मन में भी यह सब करने की उमंग उठती है; पर शारीरिक विकलांगता के कारण वह यह कर नहीं सकता।

पैर से विकलांग हुए ऐसे लोगों के जीवन में आशा की तेजस्वी किरण बन कर आये डा. प्रमोद करण सेठी, जिन्होंने ‘जयपुर फुट’ का निर्माण कर हजारों विकलांगों को चलने योग्य बनाया तथा वैश्विक ख्याति प्राप्त की।
डा. सेठी का जन्म 28 नवम्बर, 1927 को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनके पिता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र के प्राध्यापक थे। अतः पढ़ने-लिखने का वातावरण उन्हें बचपन से ही मिला। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्णकर उन्होंने सरोजिनी नायडू चिकित्सा महाविद्यालय, आगरा से 1949 में चिकित्सा स्नातक और फिर 1952 में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की।

यों तो एक चिकित्सक के लिए यह डिग्रियाँ बहुत होती हैं; पर डा. सेठी की शिक्षा की भूख समाप्त नहीं हुई। उनकी रुचि शल्य चिकित्सा में थी, अतः उन्होंने विदेश का रुख किया और एडिनबर्ग के रॉयल मैडिकल कॉलिज ऑफ सर्जन्स में प्रवेश ले लिया। 1954 में यहाँ से एफ.आर.सी.एस. की उपाधि लेकर वे भारत लौटे और राजस्थान में जयपुर के सवाई मानसिंह चिकित्सा महाविद्यालय में शल्य क्रिया विभाग में प्राध्यापक बन गये।

1982 तक डा. सेठी इसी महाविद्यालय में काम करते रहे। इसके साथ ही उन्होंने सन्तोखबा दुरलाभजी स्मृति चिकित्सालय में अस्थियों पर विस्तृत शोध किया। इससे दूर-दूर तक उनकी ख्याति एक अस्थि विशेषज्ञ के रूप में हो गयी। जब डा. सेठी किसी पैर से अपंग व्यक्ति को देखते थे, तो उनके मन में बड़ी पीड़ा होती थी। अतः वे ऐसे कृत्रिम पैर के निर्माण में जुट गये, जिससे अपंग व्यक्ति भी स्वाभाविक रूप से चल सके।

धीरे-धीरे उनकी साधना रंग लाई और वे ऐसे पैर के निर्माण में सफल हो गये। उन्होंने इसेे ‘जयपुर फुट’ नाम दिया। कुछ ही समय में पूरी दुनिया में यह पैर और इसके निर्माता डा. सेठी का नाम विख्यात हो गया। इससे पूर्व लकड़ी की टाँग का प्रचलन था। इससे व्यक्ति पैर को मोड़ नहीं सकता था; पर जयपुर फुट में रबड़ का ऐसा घुटना भी बनाया गया, जिससे पैर मुड़ सकता था। थोड़े अभ्यास के बाद व्यक्ति इससे स्वाभाविक रूप से चलने लगता था और देखने वाले को उसकी विकलांगता का पता ही नहीं लगता था। इससे उसके आत्मविश्वास में बहुत वृद्धि होती थी।

जयपुर फुट का प्रयोग दुनिया के कई प्रमुख लोगों ने किया। इनमें भारत की प्रसिद्ध नृत्यांगना सुधा चन्द्रन भी है। एक फिल्म निर्माता ने उसकी अपंगता और फिर से कुशल नर्तकी बनने की कहानी को फिल्म ‘नाचे मयूरी’ के माध्यम से पर्दे पर उतारा। इससे डा. सेठी का नाम घर-घर में पहचाना जाने लगा।

इसके बाद भी उन्होंने विश्राम नहीं लिया। वे विकालांगों के जीवन को और सुविधाजनक बनाने के लिए इसमें संशोधन करते रहे। डा0 सेठी की इन उपलब्धियों के कारण उन्हें डा. बी.सी.राय पुरस्कार, रेमन मैगसेसे पुरस्कार, गिनीज पुरस्कार आदि अनेक विश्वविख्यात सम्मानों से अलंकृत किया गया।

लाखों विकलांगों के जीवन में नया उजाला भरने वाले डा. प्रमोद करण सेठी का निधन 6 जनवरी, 2008 को हुआ।

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