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भारतीय इतिहास में सन 1857 को देश के पहले स्वाधीनता संग्राम के रूप में याद किया जाता है हालांकि इससे पहले भी कई छोटे युद्ध हो चुके थे। इस क्रम में सबसे पहली पहल सन 1806 में आज ही के दिन 10 जुलाई को की गई थी। वेल्लोर म्यूटिनी के नाम से मशहूर इस पहली जंग में भारतीय सिपाहियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंग छेड़ दी थी।

हालांकि यह जंग 1857 की ही तरह धार्मिक कारणों के आधार पर शुरू की गई थी। इस जंग को भारतीय इतिहास में आजादी की पहली कोशिश के रूप में याद किया जाता है। नवंबर 1805 में ब्रिटिश कंपनी ने सेना के ड्रेस कोड में परिवर्तन कर दिया था जिसके अनुसार हिन्दू अपने ललाट पर तिलक नहीं लगा सकते थे और मुसलमानों के लिए अपनी दाढ़ी हटाना अनिवार्य कर दिया गया।

इन नियमों के खिलाफ खड़े होकर वेल्लोर में मद्रास आर्मी विंग के एक हिन्दू तथा एक मुस्लिम सिपाही ने जंग छेड़ दी जिसे बाद में अन्य सधर्मी साथियों का साथ मिला। विद्रोह शुरू होने के कुछ ही देर में विद्रोही सिपाहियों ने शहर में मौजूद सभी ब्रिटिश सैनिकों तथा अधिकारियों में मार-काट मचा दी। इसी बीच एक ब्रिटिश सैनिक भाग कर निकटवर्ती ब्रिटिश सेना की टुकड़ी के पास आरकोट जा पहुंचा। जहां से तुरंत सर रोलो गिलेस्पी की अगुवाई में सेना रवाना हो गई और विद्रोह पर काबू पा लिया गया।

विद्रोह समाप्त होने के बाद लगभग सभी विद्रोही सिपाहियों को या तो फांसी की सजा दी गई या गोली मार दी गई। कुछ ही घंटे चली इस जंग में विद्रोह सिर्फ वेल्लोर शहर तक ही सीमित रहा परन्तु इस विद्रोह ने अंग्रेजी शासन को अपनी नीतियों पर एक बार फिर सोचने के लिए मजबूर कर दिया था।

कुछ लोगों का जन्म भले ही किसी अन्य मजहब वाले परिवार में हुआ हो; पर वे अपने पूर्व जन्म के अच्छे कर्म एवं संस्कारों के कारण हिन्दू मान्यताओं के प्रति आस्थावान होकर जीवन बिताते हैं। पुणे के पास बारामती जिले में स्थित मालेगांव (महाराष्ट्र) में एक मुसलमान घर में जन्मी जैतुनबी ऐसी ही एक महिला थी, जिन्होंने विट्ठल भक्ति कर अपना यह जन्म और जीवन सार्थक किया।

जैतुनबी को बचपन में किसी ने उपहार में श्रीकृष्ण की एक प्रतिमा भेंट की। तब से ही उनके मन में श्रीकृष्ण बस गये और वे उनकी उपासना में लीन रहने लगीं। दस वर्ष की अवस्था में उन्होंने श्री हनुमानदास जी दीक्षा ले ली। उनका अनुग्रह प्राप्त कर वे प्रतिवर्ष आलंदी से पंढरपुर तक पैदल तीर्थयात्रा करने लगीं। उनके गुरु श्री हनुमानदास जी ने उनकी श्रद्धा एवं भक्ति देखकर उन्हें जयरामदास महाराज नाम दिया।

जैतुनबी ने अपना सारा जीवन सन्तों के सान्निध्य में उनके प्रवचन सुनते हुए व्यतीत किया। उनके मन पर संत तुकाराम और संत ज्ञानेश्वर की वाणी का काफी प्रभाव था। प्रभु भक्ति को ही जीवन का उद्देश्य बना लेने के कारण वे विवाह के बंधन में नहीं फंसीं। अपने गांव में कथा-कीर्तन करने के साथ ही वे साइकिल से आसपास के गांवों में जाकर भी कीर्तन कराती थीं। उनकी कीर्तन की शैली इतनी मधुर थी कि उसमें हजारों पुरुष और महिलाएं भक्तिभाव से शामिल होते थे। लोग उन्हें आग्रहपूर्वक अपने गांव में बुलाते भी थे।

संत ज्ञानेश्वर की पालकी के साथ प्रतिवर्ष आलंदी से पंढरपुर तक जाने वाली उनकी टोली उनके नाम से ही जानी जाती थी। अपनी विट्ठल भक्ति को उन्होंने राष्ट्रभक्ति से भी जोड़ दिया था। उनके मन में देश की गुलामी की पीड़ा भी विद्यमान थी। स्वाधीनता से पूर्व वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थीं। उन दिनों वे कीर्तन में भजन के साथ देशभक्ति से परिपूर्ण गीत भी जोड़ देती थीं। उनके इन गीतों की सराहना गांधी जी ने भी की थी।

धार्मिक गतिविधियों के साथ ही वे सामाजिक जीवन में भी सक्रिय रहती थीं। वे शिक्षा को स्त्रियों के लिए बहुत आवश्यक मानती थीं। स्त्री शिक्षा के विस्तार के लिए किये गये उनके प्रयास भी उल्लेखनीय हैं। इसके साथ ही वे कालबाह्य हो चुकी रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों की घोर विरोधी थीं। अपने कीर्तन एवं प्रवचनों में वे इन पर भारी चोट करती थीं। इस प्रकार उन्होंने कथा-कीर्तन का उपयोग भक्ति जागरण के साथ ही समाज सुधार के लिए भी किया।

यद्यपि जैतुनबी का सारा जीवन एक अच्छी हिन्दू महिला की तरह बीता;पर उनके मन में इस्लाम के प्रति भी प्रेम था। वे व्रत और कीर्तन की तरह रोजे भी समान श्रद्धा से रखती थीं। यद्यपि कट्टरपंथी मुसलमान इससे नाराज रहते थे। उन्हें कई बार धमकियां भी मिलीं; पर जैतुनबी अपने काम में लगी रहीं। उनके कीर्तन और प्रवचन से प्रभावित होकर लगभग 50,000 लोग उनके शिष्य बने। आलंदी एवं पंढरपुर में उनके मठ भी हैं।

वृद्धावस्था तथा अनेक रोगों का शिकार होने पर भी वे प्रतिवर्ष तीर्थयात्रा पर जाती रहीं। वर्ष 2010 में भी उन्होंने यात्रा पूरी की। संत ज्ञानेश्वर की पालकी के पुणे पहुंचने पर 9 जुलाई, 2010 को अपनी जीवन यात्रा पूरी कर वे अनंत की यात्रा पर चल दीं।

80 वर्ष की आयु तक विट्ठल भक्ति की अलख जगाने वाली जैतुनबी उर्फ जयरामदास महाराज का अंतिम संस्कार उनके जन्मस्थान मालेगांव में ही किया गया, जिसमें हजारों लोगों ने भाग लेकर उन्हें श्रद्धांजलि दी।

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अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गये भारत के स्वाधीनता संग्राम में वीर विनायक दामोदर सावरकर का अद्वितीय योगदान है। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर देश ही नहीं, तो विदेश में भी क्रांतिकारियों को तैयार किया। इससे अंग्रेजों की नाक में दम हो गया। अतः ब्रिटिश शासन ने उन्हें लंदन में गिरफ्तार कर मोरिया नामक पानी के जहाज से मुंबई भेजा, जिससे उन पर भारत में मुकदमा चलाकर दंड दिया जा सके।

पर सावरकर बहुत जीवट के व्यक्ति थे। उन्होंने ब्रिटेन में ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों का अध्ययन किया था। 8 जुलाई, 1910 को जब वह जहाज फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह के पास लंगर डाले खड़ा था, तो उन्होंने एक साहसिक निर्णय लेकर जहाज के सुरक्षाकर्मी से शौच जाने की अनुमति मांगी।

अनुमति पाकर वे शौचालय में घुस गये तथा अपने कपड़ों से दरवाजे के शीशे को ढककर दरवाजा अंदर से अच्छी तरह बंद कर लिया। शौचालय से एक रोशनदान खुले समुद्र की ओर खुलता था। सावरकर ने रोशनदान और अपने शरीर के आकार का सटीक अनुमान किया और समुद्र में छलांग लगा दी।

बहुत देर होने पर सुरक्षाकर्मी ने दरवाजा पीटा और कुछ उत्तर न आने पर दरवाजा तोड़ दिया; पर तब तक तो पंछी उड़ चुका था। सुरक्षाकर्मी ने समुद्र की ओर देखा, तो पाया कि सावरकर तैरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ रहे हैं। उसने शोर मचाकर अपने साथियों को बुलाया और गोलियां चलानी शुरू कर दीं।

कुछ सैनिक एक छोटी नौका लेकर उनका पीछा करने लगे; पर सावरकर उनकी चिन्ता न करते हुए तेजी से तैरते हुए उस बंदरगाह पर पहुंच गये। उन्होंने स्वयं को फ्रांसीसी पुलिस के हवाले कर वहां राजनीतिक शरण मांगी। अंतरराष्ट्रीय कानून का जानकार होने के कारण उन्हें मालूम था कि उन्होंने फ्रांस में कोई अपराध नहीं किया है, इसलिए फ्रांस की पुलिस उन्हें गिरफ्तार तो कर सकती है; पर किसी अन्य देश की पुलिस को नहीं सौंप सकती। इसलिए उन्होंने यह साहसी पग उठाया था। उन्होंने फ्रांस के तट पर पहुंच कर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। तब तक ब्रिटिश पुलिसकर्मी भी वहां पहुंच गये और उन्होंने अपना बंदी वापस मांगा।

सावरकर ने अंतरराष्ट्रीय कानून की जानकारी फ्रांसीसी पुलिस को दी। बिना अनुमति किसी दूसरे देश के नागरिकों का फ्रांस की धरती पर उतरना भी अपराध था; पर दुर्भाग्य से फ्रांस की पुलिस दबाव में आ गयी। उन्होंने सावरकर को ब्रिटिश पुलिस को सौंप दिया। उन्हें कठोर पहरे में वापस जहाज पर ले जाकर हथकड़ी और बेड़ियों में कस दिया गया। मुंबई पहुंचकर उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें 50 वर्ष काले पानी की सजा दी गयी। अपने प्रयास में असफल होने पर भी वीर सावरकर की इस छलांग का ऐतिहासिक महत्व है। इससे भारत की गुलामी वैश्विक चर्चा का विषय बन गयी।

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‘ये दिल मांगे मोर,‘ को अगर सही मायनों में किसी ने पहचान दी तो वह थे कश्‍मीर राइफल्‍स के बहादुर सिपाही कैप्‍टन विक्रम बत्रा। विक्रम बत्रा ने जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। दिसंबर 1997 में शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए।

पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया।

शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।

कैप्टन के पिता जी.एल. बत्रा कहते हैं कि उनके बेटे के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाय.के.जोशी ने विक्रम को शेर शाह उपनाम से नवाजा था। अंतिम समय मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गये थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी की छाती में गोली लगी और वे “जय माता दी” कहते हुये वीरगति को प्राप्त हुये।

16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी में लिखा –“प्रिय कुशु, मां और पिताजी का ख्याल रखना … यहाँ कुछ भी हो सकता है।”अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को परमवीर चक्र के सम्मान से नवाजा गया जो उनके पिता जी.एल. बत्रा ने प्राप्त किया।

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भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को कलकत्ता के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था।

-डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने  1926 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे।

– 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने।

 -डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने समाजसेवा करने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया।

-जिस समय मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था और साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी, तब डॉ. मुखर्जी ने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा नहीं हो।

-डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी धर्म के आधार पर विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वह मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी।

-महात्मा गांधी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत के पहले मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया।

 -डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के राष्ट्रवादी चिन्तन के चलते अन्य नेताओं से उनके मतभेद बराबर बने रहे इसलिए उन्होंने मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बड़ा दल था। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की गयी।

 -डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू-कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आज़म) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था।

 -संसद में अपने भाषण में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा।

 -डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी अपने संकल्प को पूरा करने के लिये 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।

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किसी ने लिखा है – तेरे मन कुछ और है, दाता के कुछ और . संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख श्री अधीश जी के साथ भी ऐसा ही हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए उन्होंने जीवन अर्पण किया; पर विधाता ने52 वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें अपने पास बुला लिया।

अधीश जी का जन्म 17 अगस्त, 1955 को आगरा के एक अध्यापक श्री जगदीश भटनागर एवं श्रीमती उषादेवी के घर में हुआ। बालपन से ही उन्हें पढ़ने और भाषण देने का शौक था। 1968 में विद्या भारती द्वारा संचालित एक इण्टर कालिज के प्राचार्य श्री लज्जाराम तोमर ने उन्हें स्वयंसेवक बनाया। धीरे-धीरे संघ के प्रति प्रेम बढ़ता गया और बी.एस-सी,एल.एल.बी करने के बाद 1973 में उन्होंने संघ कार्य हेतु घर छोड़ दिया।

अधीश जी ने सर्वोदय के सम्पर्क में आकर खादी पहनने का व्रत लिया और उसे आजीवन निभाया। 1975 में आपातकाल लगने पर वे जेल गये और भीषण अत्याचार सहे। आपातकाल के बाद उन्हें विद्यार्थी परिषद में और 1981 में संघ कार्य हेतु मेरठ भेजा गया। मेरठ महानगर, सहारनपुर जिला, विभाग,  मेरठ प्रान्त बौद्धिक प्रमुख, प्रचार प्रमुख आदि दायित्वों के बाद उन्हें 1996 में लखनऊ भेजकर उत्तर प्रदेश के प्रचार प्रमुख का काम दिया गया।

प्रचार प्रमुख के नाते उन्होंने लखनऊ के ‘विश्व संवाद केन्द्र’ के काम में नये आयाम जोड़े। अत्यधिक परिश्रमी, मिलनसार और वक्तृत्व कला के धनी अधीश जी से जो भी एक बार मिलता, वह उनका होकर रह जाता। इस बहुमुखी प्रतिभा को देखकर संघ नेतृत्व ने उन्हें अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख और फिर प्रचार प्रमुख का काम दिया। अब पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा।

अधीश जी अपने शरीर के प्रति प्रायः उदासीन रहते थे। दिन भर में अनेक लोग उनसे मिलने आते थे, अतः बार-बार चाय पीनी पड़ती थी। इससे उन्हें कभी-कभी रक्तस्राव होने लगा। उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। जब यह बहुत बढ़ गया, तो दिल्ली में इसकी जाँच करायी गयी। चिकित्सकों ने बताया कि यह कैंसर है और काफी बढ़ गया है।

यह जानकारी मिलते ही सब चिन्तित हो गये। अंग्रेजी, पंचगव्य और योग चिकित्सा जैसे उपायों का सहारा लिया गया; पर रोग बढ़ता ही गया। मार्च2007 में दिल्ली में जब फिर जाँच हुई, तो चिकित्सकों ने अन्तिम घण्टी बजा दी। उन्होंने साफ कह दिया कि अब दो-तीन महीने से अधिक का जीवन शेष नहीं है। अधीश जी ने इसे हँसकर सुना और स्वीकार कर लिया।

इसके बाद उन्होंने एक विरक्त योगी की भाँति अपने मन को शरीर से अलग कर लिया। अब उन्हें जो कष्ट होता, वे कहते यह शरीर को है, मुझे नहीं। कोई पूछता कैसा दर्द है, तो कहते, बहुत मजे का है। इस प्रकार वे हँसते-हँसते हर दिन मृत्यु की ओर बढ़ते रहे। जून के अन्तिम सप्ताह में ठोस पदार्थ और फिर तरल पदार्थ भी बन्द हो गये।

चार जुलाई, 2007 को वे बेहोश हो गये। इससे पूर्व उन्होंने अपना सब सामान दिल्ली संघ कार्यालय में कार्यकर्त्ताओं को दे दिया। बेहोशी में भी वे संघ की ही बात बोल रहे थे। घर के सब लोग वहाँ उपस्थित थे। उनका कष्ट देखकर पाँच जुलाई शाम को माता जी ने उनके सिर पर हाथ रखकर कहा – बेटा अधीश, निश्चिन्त होकर जाओ। जल्दी आना और बाकी बचा संघ का काम करना। इसके कुछ देर बाद ही अधीश जी ने देह त्याग दी।

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भारतीय संस्कृति को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने वाले महापुरुष स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को सूर्योदय से 6 मिनट पूर्व 6 बजकर 33 मिनट 33 सेकेन्ड पर हुआ। भुवनेश्वरी देवी के विश्वविजयी पुत्र का स्वागत मंगल शंख बजाकर मंगल ध्वनी से किया गया। ऐसी महान विभूती के जन्म से भारत माता भी गौरवान्वित हुईं।

नरेन्द्र की बुद्धी बचपन से ही तेज थी।बचपन में नरेन्द्र बहुत नटखट थे। भय, फटकार या धमकी का असर उन पर नहीं होता था। तो माता भुवनेश्वरी देवी ने अदभुत उपाय सोचा, नरेन्द्र का अशिष्ट आचरण जब बढ जाता तो, वो शिव शिव कह कर उनके ऊपर जल डाल देतीं। बालक नरेन्द्र एकदम शान्त हो जाते। इसमे संदेह नही की बालक नरेन्द्र शिव का ही रूप थे।

माँ के मुहँ से रामायण महाभाऱत के किस्से सुनना नरेन्द्र को बहुत अच्छा लगता था।बालयावस्था में नरेन्द्र नाथ को गाङी पर घूमना बहुत पसन्द था। जब कोई पूछता बङे हो कर क्या बनोगे तो मासूमियत से कहते कोचवान बनूँगा। पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखने वाले पिता विश्वनाथ दत्त अपने पुत्र को अंग्रेजी शिक्षा देकर पाश्चातय सभ्यता में रंगना चाहते थे। किन्तु नियती ने तो कुछ खास प्रयोजन हेतु बालक को अवतरित किया था।

ये कहना अतिश्योक्ती न होगा कि भारतीय संस्कृती को विश्वस्तर पर पहचान दिलाने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वो हैं स्वामी विवेकानंद। व्यायाम, कुश्ती,क्रिकेट आदी में नरेन्द्र की विशेष रूची थी। कभी कभी मित्रों के साथ हास –परिहास में भी भाग लेते। जनरल असेम्बली कॉलेज के अध्यक्ष विलयम हेस्टी का कहना था कि नरेन्द्रनाथ दर्शन शास्त्र के अतिउत्तम छात्र हैं। जर्मनी और इग्लैण्ड के सारे विश्वविद्यालयों में नरेन्द्रनाथ जैसा मेधावी छात्र नहीं है।

नरेन्द्र के चरित्र में जो भी महान है, वो उनकी सुशिक्षित एवं विचारशील माता की शिक्षा का ही परिणाम है।बचपन से ही परमात्मा को पाने की चाह थी।डेकार्ट का अंहवाद, डार्विन का विकासवाद, स्पेंसर के अद्वेतवाद को सुनकर नरेन्द्रनाथ सत्य को पाने का लिये व्याकुल हो गये। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ती हेतु ब्रह्मसमाज में गये किन्तु वहाँ उनका चित्त शान्त न हुआ। रामकृष्ण परमहंस की तारीफ सुनकर नरेन्द्र उनसे तर्क के उद्देश्य से उनके पास गये किन्तु उनके विचारों से प्रभावित हो कर उन्हे गुरू मान लिया। परमहसं की कृपा से उन्हे आत्म साक्षात्कार हुआ। नरेन्द्र परमहंस के प्रिय शिष्यों में से सर्वोपरि थे। 25 वर्ष की उम्र में नरेन्द्र ने गेरुवावस्त्र धारण कर सन्यास ले लिया और विश्व भ्रमण को निकल पङे।

1893 में शिकागो विश्व धर्म परिषद में भारत के प्रतीनिधी बनकर गये किन्तु उस समय युरोप में भारतीयों को हीन दृष्टी से देखते थे। उगते सूरज को कौन रोक पाया है, वहाँ लोगों के विरोध के बावजूद एक प्रोफेसर के प्रयास से स्वामी जी को बोलने का अवसर मिला। स्वामी जी ने बहिनों एवं भाईयों कहकर श्रोताओं को संबोधित किया। स्वामी जी के मुख से ये शब्द सुनकर करतल ध्वनी से उनका स्वागत हुआ। श्रोता उनको मंत्र मुग्ध सुनते रहे निर्धारित समय कब बीत गया पता ही न चला। अध्यक्ष गिबन्स के अनुरोध पर स्वामी जी आगे बोलना शुरू किये तथा 20 मिनट से अधिक बोले। उनसे अभिभूत हो हज़ारों लोग उनके शिष्य बन गये। आलम ये था कि जब कभी सभा में शोर होता तो उन्हे स्वामी जी के भाषण सुनने का प्रलोभन दिया जाता सारी जनता शान्त हो जाती।

अपने व्यख्यान से स्वामी जी ने सिद्ध कर दिया कि हिन्दु धर्म भी श्रेष्ठ है, उसमें सभी धर्मों समाहित करने की क्षमता है।इस अदभुत सन्यासी ने सात समंदर पार भारतीय संसकृती की ध्वजा को फैराया।स्वामी जी केवल संत ही नही देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक एवं मानव प्रेमी थे। 1899 में कोलकता में भीषण प्लेग फैला, अस्वस्थ होने के बावजूद स्वामी जी ने तन मन धन से महामारी से ग्रसित लोगों की सहायता करके इंसानियत की मिसाल दी। स्वामी विवेकानंद ने, 1 मई, 1897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। रामकृष्ण मिशन, दूसरों की सेवा और परोपकार को कर्मयोग मानता है जो कि हिन्दुत्व में प्रतिष्ठित एक महत्वपूर्ण सिध्दान्त है।

39 वर्ष के संक्षिप्त जीवन काल में स्वामी जी ने जो अदभुत कार्य किये हैं, वो आने वाली पिढीयों को मार्ग दर्शन करते रहेंगे। 4 जुलाई 1902 को स्वामी जी का अलौकिक शरीर परमात्मा मे विलीन हो गया।

स्वामी जी का आदर्श- “उठो जागो और तब तक न रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए” अनेक युवाओं के लिये प्रेरणा स्रोत है। स्वामी विवेकानंद जी का जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनकी शिक्षा में सर्वोपरी शिक्षा है ”मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है।”

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कैप्टन मनोज पांडे की कारगिल युद्ध मे वीरता दिखाने की वीरगाथा और 2 व् 3 जुलाई की मध्य रात्रि में अधम्य जोश से “खालुबार” की पहाडीयों को फिर से हासिल करने का ब्यौरा अभूतपूर्व है. उनके प्राण न्योछावर में भी गौरव की अनुभूति थी क्योकि उनकी रायफल का निशान दुश्मन के बंकर थे,  बर्फ में उनकी जमी हुई अंगुलियाँ रायफल के ट्रीगर को लगातार दबा रही थी.

एन.डी.ए. के भूतपूर्व प्रशिक्षार्थी रहे कैप्टन मनोज को 1/11 गोरखा रायफल में जून 1997 में कमीशन प्राप्त हुआ. कैप्टन मनोज ने कारगिल युद्ध के समय ऑपरेशन विजय के दौरान प्लाटून कमांड की जिम्मेदारी संभाली और बटालिक सेक्टर की खालुबार पहाडियों की ओर बढ़ते रहे.

उन्होंने सांग्रामिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण जुबार टॉप को वापस हासिल करने में 3 जुलाई 1999 को बड़े सवेरे अपने जवानों का बड़ी कुशलता से नेतृत्व किया. ऊँची पर्वत श्रेणियो पर बटालियन के विजय पथ की तरफ बढ़ते कदमो को दुश्मन ने मोर्चाबंदी कर रोकने की कोशिश की पर निर्भीक कैप्टन पांडे अपने लक्ष्य की और कदम बढ़ाते गये. अदम्य साहस दिखाते हुए वे अपने जवानों की टोली से बहुत आगे निकल चुके थे और गोलियों की बौछार करते हुए वीरतापूर्वक दुश्मन का सर्व विनाश करते रहे.

उनके कंधे और पैर बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद वे अकेले ही अपने उत्कृष्ट साहस को दिखाते हुए दुश्मन के छक्के छुडाते रहे और एक के बाद एक बंकर पर जीत हासिल करते रहे. खून से लथपथ और लहूलूहान होने के बावजूद कैप्टन मनोज पांडे ने 3 जुलाई – 1999 को वीरगति को प्राप्त करने से पहले दुश्मन के अंतिम बंकर को भी धराशायी कर उनका सर्वनाश किया.

उनके अंतिम शब्द थे “ना छोड़नु” उनको मत छोड़ो.

भारत माँ के इस वीर सपूत को मरणोत्तर परमवीर चक्र प्रदान किया गया.

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त्यागी और तपस्वियों की भूमि भारत में अनेक तरह के योगी हुए हैं। केवल भारत ही नहीं, तो विश्व के धार्मिक विद्वानों, वैज्ञानिकों एवं चिकित्सकों को अपनी यौगिक क्रियाओं से कई बार चमत्कृत कर देने वाले सिद्धयोगी स्वामी राम का नाम असहज योग की परम्परा में शीर्ष पर माना जाता है।

स्वामी राम का जन्म देवभूमि उत्तरांचल के गढ़वाल क्षेत्र में दो जुलाई, 1925 को हुआ था। उत्तरांचल सदा से दिव्य योगियों एवं सन्तों की भूमि रही है। उन्हें देखकर राम की रुचि बचपन से ही योग की ओर हो गयी। इन्होंने विद्यालयीन शिक्षा कहाँ तक पायी, इसकी जानकारी नहीं मिलती;पर इतना सत्य है कि लौकिक शिक्षा के बारे में भी इनका ज्ञान अत्यधिक था।

योग में रुचि होने के कारण इन्होंने अनेक संन्यासियों के पास जाकर योग की कठिन साधना की। व्यक्तिगत प्रयास एवं गुरु कृपा से इन्हें अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। उन दिनों भारत तथा विश्व में ब्रिटेन एवं अमरीका आदि यूरोपीय देशों एवं ईसाई धर्म का डंका बज रहा था। वे लोग भारतीय धर्म, अध्यात्म, योग, चिकित्सा शास्त्र तथा अन्य धार्मिक मान्यताओं की हँसी उड़ाते हुए उसे पाखण्ड एवं अन्धविश्वास बताते थे। अतः स्वामी राम ने उनके घर में घुसकर ही उनकी मान्यताओं को तोड़ने का निश्चय किया।

जब स्वामी राम ने विदेश की धरती पर योग शिविर लगाये, तो उनके चमत्कारों की चारों ओर चर्चा होने लगी। जब वैज्ञानिकों एवं चिकित्सा शास्त्र के विशेषज्ञों तक उनकी ख्याति पहुँची, तो उन्होंने अपने सामने योग के चमत्कार दिखाने को कहा। स्वामी राम ने इस चुनौती को स्वीकार किया और वैज्ञानिकों को अपने साथ परीक्षण के लिए आधुनिक यन्त्र लाने को भी कहा।

प्रख्यात वैज्ञानिकों एवं उनकी आधुनिक मशीनों के सम्मुख स्वामी राम ने यौगिक क्रियाओं का प्रदर्शन किया। योग द्वारा शरीर का ताप बढ़ाने एवं घटाने, हृदय की गति घटाने और 20 मिनट तक बिल्कुल रोक देने, दूर बैठे अपने भक्त के स्वास्थ्य को ठीक करना आदि को देखकर विदेशी विशेषज्ञ अपना सब ज्ञान और विज्ञान भूल गये। स्वामी राम ने बताया कि शरीर ही सब कुछ नहीं है, अपितु चेतन और अचेतन मस्तिष्क की क्रियाओं का भी मानव जीवन में बहुत महत्व है और इस ज्ञान के क्षेत्र में पश्चिम बहुत पीछे है।

आगे चलकर स्वामी राम ने विदेश में अनेक अन्तरराष्ट्रीय योग शिविर लगाये तथा आश्रमों की स्थापना की। उन्होंने योग पर अनेक पुस्तकें भी लिखीं, जिनका अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसके बाद भी स्वामी जी को अपनी जन्मभूमि भारत और उत्तरांचल से अतीव प्रेम था। वहाँ की निर्धनता तथा स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव को देखकर उन्हें बहुत कष्ट होता था। इसलिए उन्होंने देहरादून जिले के जौलीग्राण्ट ग्राम में एक विशाल चिकित्सालय एवं चिकित्सा विद्यालय की स्थापना की।

इस प्रकल्प के माध्यम से उन्होंने निर्धन जनों को विश्व स्तरीय सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास किया। विश्व भर में फैले स्वामी जी के धनी भक्तों के सहयोग से स्थापित यह चिकित्सालय आज भी उस क्षेत्र की अतुलनीय सेवा कर रहा है। जब स्वामी राम का शरीर थक गया, तो उन्होंने योग साधना द्वारा उसे छोड़ दिया। स्वामी जी भले ही चले गये; पर उनके द्वारा स्थापित ‘हिमालयन अस्पताल’ से उनकी कीर्ति सदा जीवित है।

 डॉ. विधानचन्द्र राय का जन्म बिहार की राजधानी पटना में एक जुलाई1882 को हुआ था। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि विधानचन्द्र राय की रुचि चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन में थी। भारत से इस सम्बन्ध में शिक्षा पूर्ण कर वे उच्च शिक्षा के लिए लन्दन गये।

लन्दन मैडिकल क१लिज की एक घटना से इनकी धाक सब छात्रों और प्राध्यापकों पर जम गयी। डा. विधानचन्द्र वहाँ एम.डी. कर रहे थे। एक बार प्रयोगात्मक शिक्षा के लिए इनके वरिष्ठ चिकित्सक विधानचन्द्र एवं अन्य कुछ छात्रों को लेकर अस्पताल गये। जैसे ही सब लोग रोगी कक्ष में घुसे, विधानचन्द्र ने हवा में गन्ध सूँघते हुए कहा कि यहाँ कोई चेचक का मरीज भर्ती है।

इस पर अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सकों ने कहा, यह सम्भव नहीं है;क्योंकि चेचक के मरीजों के लिए दूसरा अस्पताल है, जो यहाँ से बहुत दूर है। विधानचन्द्र के साथी हँसने लगे; पर वे अपनी बात पर दृढ़ रहे। उन दिनों चेचक को छूत की भयंकर महामारी माना जाता था। अतः उसके रोगियों को अलग रखा जाता था।

इस पर विधानचन्द्र अपने साथियों एवं प्राध्यापकों के साथ हर बिस्तर पर जाकर देखने लगे। अचानक उन्होंने एक बिस्तर के पास जाकर वहाँ लेटे रोगी के शरीर पर पड़ी चादर को झटके से उठाया। सब लोग यह देखकर दंग रह गये कि उस रोगी के सारे शरीर पर चेचक के लाल दाने उभर रहे थे।

लन्दन से अपनी शिक्षा पूर्णकर वे भारत आ गये। यद्यपि लन्दन में ही उन्हें अच्छे वेतन एवं सुविधाओं वाली नौकरी उपलब्ध थी; पर वे अपने निर्धन देशवासियों की ही सेवा करना चाहते थे। भारत आकर वे कलकत्ता के कैम्पबेल मैडिकल क१लिज में प्राध्यापक हो गये। व्यापक अनुभव एवं मरीजों के प्रति सम्वेदना होने के कारण उनकी प्रसिद्धि देश-विदेश में फैल गयी।

मैडिकल कॉलिज की सेवा से मुक्त होकर उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण किया। इसके बाद भी वे प्रतिदिन दो घण्टे निर्धन रोगियों को निःशुल्क देखते थे। बहुत निर्धन होने पर वे दवा के लिए पैसे भी देते थे।

डा. विधानचन्द्र के मन में मानव मात्र के लिए असीम सम्वेदना थी। इसी के चलते उन्होंने कलकत्ता का वैलिंग्टन स्ट्रीट पर स्थित अपना विशाल मकान निर्धनों को चिकित्सा सुविधा देने वाली एक संस्था को दान कर दिया। वे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के भी निजी चिकित्सक थे। 1916 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय की सीनेट के सदस्य बने। इसके बाद 1923 में वे बंगाल विधान परिषद् के सदस्य निर्वाचित हुए। देशबन्धु चित्तरंजन दास से प्रभावित होकर स्वतन्त्रता के संघर्ष में भी वे सक्रिय रहे।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्यों में विधानसभाओं का गठन हुआ। डा. विधानचन्द्र राय के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के व्यापक अनुभव एवं निर्विवाद जीवन को देखते हुए जनवरी 1948 में उन्हें बंगाल का पहला मुख्यमन्त्री बनाया गया। इस पद पर वे जीवन के अन्तिम क्षण (एक जुलाई, 1962) तक बने रहे।

मुख्यमन्त्री रहते हुए भी उनकी विनम्रता और सादगी में कमी नहीं आयी। नेहरू-नून समझौते के अन्तर्गत बेरूबाड़ी क्षेत्र पाकिस्तान को देने का विरोध करते हुए उन्होंने बंगाल विधानसभा में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कराया।

 डॉ. विधानचन्द्र राय के जीवन का यह भी एक अद्भुत प्रसंग है कि उनका जन्म और देहान्त एक ही तिथि को हुआ। समाज के प्रति उनकी व्यापक सेवाओं को देखते हुए 1961 में उन्हें देश के सर्वोच्च अलंकरण ‘भारत रत्न’से सम्मानित किया गया।