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आज कश्मीर का जो हिस्सा भारत के पास है, उसका श्रेय जिन वीरों को है, उनमें से मेजर सोमनाथ शर्मा का नाम अग्रणी है। 31 जनवरी, 1922 को ग्राम डाढ (जिला धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश) में मेजर जनरल अमरनाथ शर्मा के घर में सोमनाथ का जन्म हुआ। इनके गाँव से कुछ दूरी पर ही प्रसिद्ध तीर्थस्थल चामुण्डा नन्दिकेश्वर धाम है। सैनिक परिवार में जन्म लेने के कारण सोमनाथ शर्मा वीरता और बलिदान की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए थे। देशप्रेम की भावना उनके खून की बूँद-बूँद में समायी थी।

इनकी प्रारम्भिक शिक्षा नैनीताल में हुई थी। इसके बाद इन्होंने प्रिन्स अ१फ वेल्स र१यल इण्डियन मिलट्री कॉलेज, देहरादून से सैन्य प्रशिक्षण लिया। 22 फरवरी 1942 को इन्हें कुमाऊँ रेजिमेण्ट की चौथी बटालियन में सेकण्ड लेफ्टिनेण्ट के पद पर नियुक्ति मिली। इसी साल इन्हें डिप्टी असिस्टेण्ट क्वार्टर मास्टर जनरल बनाकर बर्मा के मोर्चे पर भेजा गया। वहाँ इन्होंने बड़े साहस और कुशलता से अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया।

15 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतन्त्र होते ही देश का दुखद विभाजन भी हो गया। जम्मू कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह असमंजस में थे। वे अपने राज्य को स्वतन्त्र रखना चाहते थे। दो महीने इसी कशमकश में बीत गये। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के वेश में कश्मीर हड़पने के लिए टूट पड़े।

वहाँ सक्रिय शेख अब्दुल्ला कश्मीर को अपनी जागीर बनाकर रखना चाहता था। रियासत के भारत में कानूनी विलय के बिना भारतीय शासन कुछ नहीं कर सकता था। जब राजा हरिसिंह ने जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान के पंजे में जाते देखा, तब उन्होंने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये।

इसके साथ ही भारत सरकार के आदेश पर सेना सक्रिय हो गयी। मेजर सोमनाथ शर्मा की कम्पनी को श्रीनगर के पास बड़गाम हवाई अड्डे की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गयी। वे केवल 100 सैनिकों की अपनी टुकड़ी के साथ वहाँ डट गये। दूसरी ओर सात सौ से भी अधिक पाकिस्तानी सैनिक जमा थे। उनके पास शस्त्रास्त्र भी अधिक थे; पर साहस की धनी मेजर सोमनाथ शर्मा ने हिम्मत नहीं हारी। उनका आत्मविश्वास अटूट था। उन्होंने अपने ब्रिगेड मुख्यालय पर समाचार भेजा कि जब तक मेरे शरीर में एक भी बूँद खून और मेरे पास एक भी जवान शेष है, तब तक मैं लड़ता रहूँगा।

दोनों ओर से लगातार गोलाबारी हो रही थी। कम सैनिकों और गोला बारूद के बाद भी मेजर की टुकड़ी हमलावरों पर भारी पड़ रही थी। 3 नवम्बर, 1947 को शत्रुओं का सामना करते हुए एक हथगोला मेजर सोमनाथ के समीप आ गिरा। उनका सारा शरीर छलनी हो गया। खून के फव्वारे छूटने लगे। इस पर भी मेजर ने अपने सैनिकों को सन्देश दिया – इस समय मेरी चिन्ता मत करो। हवाई अड्डे की रक्षा करो। दुश्मनों के कदम आगे नहीं बढ़ने चाहिए….। यह सन्देश देतेे हुए मेजर सोमनाथ शर्मा ने प्राण त्याग दिये।

उनके बलिदान से सैनिकों का खून खौल गया। उन्होंने तेजी से हमला बोलकर शत्रुओं को मार भगाया। यदि वह हवाई अड्डा हाथ से चला जाता, तो पूरा कश्मीर आज पाकिस्तान के कब्जे में होता। मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरान्त ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया। शौर्य और वीरता के इस अलंकरण के वे स्वतन्त्र भारत में प्रथम विजेता हैं। सेवानिवृत्त सेनाध्यक्ष जनरल विश्वनाथ शर्मा इनके छोटे भाई हैं।

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राणा सांगा का पूरा नाम महाराणा संग्रामसिंह था.  उनका जन्म  12 अप्रैल, 1484  को मालवा, राजस्थान मे हुआ था. राणा सांगा सिसोदिया (सूर्यवंशी राजपूत) राजवंशी थे. राणा सांगा ने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध सभी राजपूतों को एकजुट किया। राणा सांगा अपनी वीरता और उदारता के लिये प्रसिद्ध हुये। एक विश्वासघाती के कारण वह बाबर से युद्ध हारे लेकिन उन्होंने अपने शौर्य से दूसरों को प्रेरित किया। राणा रायमल के बाद सन 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने। इन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली हिन्दू राजा थे। इनके शासनकाल मे मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की ‍रक्षा तथा उन्नति की। (शासनकाल 1509 से 1528 ई.)  राणा सांगा अदम्य साहसी थे। एक भुजा, एक आँख खोने व अनगिनत ज़ख्मों के बावजूद उन्होंने अपना महान पराक्रम नहीं खोया, सुलतान मोहम्मद शासक माण्डु को युद्ध मे हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुनः उदारता के साथ सौंप दिया.

बाबर ने पानीपत के युद्ध को तो जीत लिया परन्तु हिन्दू समाज ने उसे केवल एक विदेशी, आक्रमणकारी तथा लुटेरे से अधिक स्वीकार न किया। बाबर के आगरा पहुंचने पर उसके अधिकारियों तथा सेना को तीन दिन तक भोजन नहीं मिला। घोड़ों को चारा भी उपलब्ध नहीं हुआ। अबुल फजल ने स्वीकार किया है कि हिन्दुस्थानी बाबर से घृणा करते थे। इस विदेशी लुटेरे बाबर का अपने जीवन का महानतम संघर्ष खानवा के मैदान में मेवाड़ के शक्तिशाली शासक राणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) से हुआ। राणा सांगा महाराणा कुंभा के पौत्र तथा महाराणा रायमल के पुत्र थे। वे अपने समय के महानतम विजेता तथा “हिन्दूपति” के नाम से विख्यात थे। वे भारत में हिन्दू-साम्राज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने मालवा तथा गुजरात पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। बाबर के साथ इस संघर्ष के बारे में इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है, “अब बाबर को ऐसे उच्च कोटि के कुछ योद्धाओं का सामना करना पड़ा जिनसे इससे पहले कभी टक्कर न हुई थी।”

इस भीषण युद्ध के प्रारंम्भ में ही बाबर की करारी हार हुई तथा उसकी विशाल सेना भाग खड़ी हुई। वास्तव में इस युद्ध में ऐसा कोई राजपूत कुल नहीं था जिसके श्रेष्ठ नायक का रक्त न बहा हो। परन्तु बाबर भागती हुई अपनी सेना को पुन: एकत्रित करने में सफल हुआ। उसने अपने सैनिकों में मजहबी उन्माद तथा भविष्य के सुन्दर सपने देकर जोश भरा तथा लड़ने के लिए तैयार किया, जिसमें उसे सफलता मिली। चन्देरी दुर्ग के रक्षक, राणा सांगा द्वारा नियुक्त मेदिनी राय ने 4,000 राजपूत सैनिकों के साथ संघर्ष किया। संख्या अत्यधिक कम होने पर भी केसरिया वस्त्र धारण कर सैनिकों ने अंतिम सांस तक संघर्ष किया। परन्तु इस युद्ध में राजपूतो की हार और बाबर की जीत हुई।कुछ समय पश्चात वि.स्. 1584(30 जनवरी 1528) को कालपी नामक स्थान पर 46 वर्ष की आयु में महाराणा का स्वर्गवास हो गया। महाराणा की मृत्यु के समय उनके शरीर पर कम से कम 80 घाव तीर और भालों के लगे हुए थे।

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह का जन्म 29 जनवरी, 1922 को ग्राम बनैल (जिला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न एवं शिक्षित परिवार में हुआ था। उनके पिता कुँवर बलबीर सिंह  अंग्रेज शासन में पहली बार बने भारतीय मुख्य अभियन्ता थे। इससे पूर्व इस पद पर सदा अंग्रेज ही नियुक्त होते थे। राजेन्द्र सिंह को घर में सब प्यार से रज्जू कहते थे। आगे चलकर उनका यही नाम सर्वत्र लोकप्रिय हुआ।

रज्जू भैया बचपन से ही बहुत मेधावी थे। उनके पिता की इच्छा थी कि वे प्रशासनिक सेवा में जायें। इसीलिए उन्हें पढ़ने के लिए प्रयाग भेजा गया; पर रज्जू भैया को अंग्रेजों की गुलामी पसन्द नहीं थी। उन्होंने प्रथम श्रेणी में एम-एस.सी. उत्तीर्ण की और फिर वहीं भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक हो गये।

उनकी एम-एस.सी. की प्रयोगात्मक परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार विजेता डा. सी.वी.रमन आये थे। वे उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्हें अपने साथ बंगलौर चलकर शोध करने का आग्रह किया; पर रज्जू भैया के जीवन का लक्ष्य तो कुछ और ही था।

प्रयाग में उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे नियमित शाखा जाने लगे। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से वे बहुत प्रभावित थे। 1943 में रज्जू भैया ने काशी से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया। वहाँ श्री गुरुजी का ‘शिवाजी का पत्र, जयसिंह के नाम’ विषय पर जो बौद्धिक हुआ, उससे प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया। अब वे अध्यापन कार्य के अतिरिक्त शेष सारा समय संघ कार्य में लगाने लगे। उन्होंने घर में बता दिया कि वे विवाह के बन्धन में नहीं बधेंगे।

प्राध्यापक रहते हुए रज्जू भैया अब संघ कार्य के लिए अब पूरे उ.प्र.में प्रवास करने लगे। वे अपनी कक्षाओं का तालमेल ऐसे करते थे, जिससे छात्रों का अहित न हो तथा उन्हें सप्ताह में दो-तीन दिन प्रवास के लिए मिल जायें। पढ़ाने की रोचक शैली के कारण छात्र उनकी कक्षा के लिए उत्सुक रहते थे।

रज्जू भैया सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे। वे सदा तृतीय श्रेणी में ही प्रवास करते थे तथा प्रवास का सारा व्यय अपनी जेब से करते थे। इसके बावजूद जो पैसा बचता था, उसे वे चुपचाप निर्धन छात्रों की फीस तथा पुस्तकों पर व्यय कर देते थे। 1966 में उन्होंने विश्वविद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूरा समय संघ को ही देने लगे।

अब उन पर उत्तर प्रदेश के साथ बिहार का काम भी आ गया। वे एक अच्छे गायक भी थे। संघ शिक्षा वर्ग की गीत कक्षाओं में आकर गीत सीखने और सिखाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। सरल उदाहरणों से परिपूर्ण उनके बौद्धिक ऐसे होते थे, मानो कोई अध्यापक कक्षा ले रहा हो।

उनकी योग्यता के कारण उनका कार्यक्षेत्र क्रमशः बढ़ता गया। आपातकाल के समय भूमिगत संघर्ष को चलाये रखने में रज्जू भैया की बहुत बड़ी भूमिका थी। उन्होंने प्रोफेसर गौरव कुमार के छद्म नाम से देश भर में प्रवास किया। जेल में जाकर विपक्षी नेताओं से भेंट की और उन्हें एक मंच पर आकर चुनाव लड़ने को प्रेरित किया। इसी से इन्दिरा गांधी की तानाशाही का अन्त हुआ।

1977 में रज्जू भैया सह सरकार्यवाह, 1978 में सरकार्यवाह और 1994 में सरसंघचालक बने। उन्होंने देश भर में प्रवास कर स्वयंसेवकों को कार्य विस्तार की प्रेरणा दी। बीमारी के कारण उन्होंने 2000 ई0 में श्री सुदर्शन जी को यह दायित्व दे दिया। इसके बाद भी वे सभी कार्यक्रमों में जाते रहे।

अन्तिम समय तक सक्रिय रहते हुए 14 जुलाई, 2003 को कौशिक आश्रम, पुणे में रज्जू भैया का देहान्त हो गया।

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पंजाब केसरी लाला लाजपत राय  भारतीय स्वतंत्रता अभियान के मुख्य नेता के रूप में याद किये जाते है. लाल-बाल-पाल की त्रिपुटी में लाल मतलब लाला लाजपत राय ही है. लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी 1865 को धुडिके ग्राम में (मोगा जिला, पंजाब) हुआ.

वे आर्य समाज के भक्त और आर्य राजपत्र (जब वे विद्यार्थी थे तब उन्होंने इसकी स्थापना की थी) के संपादक भी थे. सरकारी कानून(लॉ) विद्यालय, लाहौर में कानून (लॉ) की पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने लाहौर और हिस्सार में अपना अभ्यास शुरू रखा और राष्ट्रिय स्तर पर दयानंद वैदिक स्कूल की स्थापना भी की, जहा वे दयानंद सरस्वती जिन्होंने हिंदु सोसाइटी में आर्य समाज की पुनर्निर्मिति की थी, उनके अनुयायी भी बने. और भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस मे शामिल होने के बाद, उन्होंने पंजाब के कई सारे राजनैतिक अभियानों में हिस्सा लिया.

मई 1907 में अचानक ही बिना किसी पूर्वसूचना के मांडले, बर्मा (म्यांमार) से उन्हें निर्वासित (देश से निकाला गया) किया गया. वही नवम्बर में, उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत ना होने की वजह से वाइसराय, लार्ड मिन्टो ने उनके स्वदेश वापिस भेजने का निर्णय लिया. स्वदेश वापिस आने के बाद लाला लाजपत राय सूरत की प्रेसीडेंसी पार्टी से चुनाव लड़ने लगे लेकिन वहा भी ब्रिटिशो ने उन्हें निष्कासित कर दिया.

3 फ़रवरी, 1928 को साइमन कमीशन भारत पहुँचा, जिसके विरोध में पूरे देश में आग भड़क उठी। लाहौर में 30 अक्टूबर, 1928 को एक बड़ी घटना घटी, जब लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपत राय की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए। इस समय अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था-

मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी।

और इस चोट ने कितने ही ऊधमसिंह और भगतसिंह तैयार कर दिए, जिनके प्रयत्नों से हमें आज़ादी मिली। इस घटना के 17 दिन बाद यानि 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी ने आख़िरी सांस ली और सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

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उत्कल भूमि उत्कृष्टता की भूमि है। यहाँ की प्राकृतिक छटा और वन सम्पदा अपूर्व है। अंग्रेजों ने जब इसे लूटना शुरू किया, तो हर जगह वनवासी वीर इसके विरोध में खड़े हुए। ऐसा ही एक वीर थे निर्मल मुण्डा, जिनका जन्म 27 जनवरी, 1894 को ग्राम बारटोली, गंगापुर स्टेट, उड़ीसा में हुआ था।

निर्मल के पिता मोराह मुण्डा ग्राम प्रधान थे। पूरा गाँव उनका आदर करता था। निर्मल की प्रारम्भिक शिक्षा रायबोगा स्कूल में हुई। इसके बाद उन्हें राजगंगापुर के लूथेरियन मिशन स्कूल और फिर राँची के गोसनर स्कूल में भेज दिया गया। कक्षा दस में पढ़ते समय प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। निर्मल सेना में भर्ती होकर फ्रान्स लड़ने चले गये।

युद्ध के बाद कुछ समय उन्होंने वीरमित्रतापुर लाइम स्टोन कम्पनी में नौकरी की। एक बार भूल न होते हुए भी अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें डाँटा, तो वे नौकरी छोड़कर अपने क्षेत्र को शिक्षित बनाने का संकल्प लेकर गाँव में रहने लगे।

अंग्रेजों से पूर्व इस वनवासी क्षेत्र पर स्थानीय राजाओं और जमीदारों का अधिकार था। यद्यपि वे भी जंगल से कमाई करते थे; पर वे पर्यावरण सन्तुलन बनाकर रखते थे। अंग्रेजों के आने के बाद यह व्यवस्था बदल गयी। उनका उद्देश्य अधिकाधिक धन कमाकर अपने देश भेजना था। वे इस क्षेत्र पर कब्जा भी करना चाहते थे, ताकि उनकी लूट को कोई रोक न सके। इसी उद्देश्य के लिए अंग्रेजों ने इसके लिए मुखर्जी समिति बनायी, जिसके द्वारा बनाये नियम ‘मुखर्जी सेटलमेण्ट’ कहे गये।

इससे पूर्व 1908 में ब्रिटिश संसद ने जंगल और उसकी उपज पर वनवासियों के अधिकारों के संरक्षण के लिए कानून बनाये थे; पर मुखर्जी सेटलमेण्ट के माध्यम से उन्हें भी छीन लिया गया। यह वनवासियों के अधिकारों पर सीधी चोट थी। इसके विरुद्ध वे निर्मल मुण्डा के नेतृत्व में संगठित होने लगे। निर्मल ने गाँव-गाँव घूमकर वनवासियों को एकत्र कर उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जागरूक किया। उन्होंने अंग्रेजों के साथ रहकर काम किया था, इसलिए उनकी धूर्तता वे बहुत अच्छी तरह जानते थे।

मुखर्जी सेटलमेण्ट के अनुसार मालगुजारी की दर पाँच गुनी कर दी गयी। वनवासियों की खेती तो प्रकृति पर आधारित थी। यदि कभी अतिवृष्टि या अनावृष्टि हो जाती, तो भूखों मरने की नौबत आ जाती थी; पर अंग्रेजों को इससे क्या लेना, वे तो उनकी जमीन नीलाम कर मालगुजारी वसूलते थे। वनवासियों में आक्रोश बढ़ता जा रहा था। निर्मल मुण्डा ने इसके विरोध में 25 अप्रैल , 1939 को सुन्दरगढ़ जिले के आमको सिमको ग्राम में एक विशाल सभा का आयोजन किया, जिसमें 10,000 वनवासी एकत्र हुए।

प्रशासन इस सभा एवं आन्दोलन से भयभीत था। अतः लेफ्टिनेण्ट ज्योप्टोन बिफो के नेतृत्व में पुलिसकर्मियों ने मैदान को घेरकर गोली चला दी, जिसमें 300 लोग मारे गये। पुलिस ने निर्मल मुण्डा को गिरफ्तार कर जसपुर जेल में ठूंस दिया, जहाँ से वे 1947 में ही मुक्त हुए।

इस वीर को आजादी के बाद भी समुचित सम्मान नहीं मिला। क्षेत्रीय जनता की बहुत पुकार पर 15 अगस्त, 1972 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने उन्हें ताम्रपत्र दिया। इसके कुछ समय बाद दो जनवरी, 1973 को वनों के रक्षक इस वीर का देहान्त हो गया। प्रतिवर्ष 25 अप्रेल को आमको सिमको गाँव में लगने वाले मेले में निर्मल मुण्डा को लोग श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।

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देश की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश जेल में भीषण यातनाएँ भोगने वाली गाइडिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 को नागाओं की रांगमेयी जनजाति में हुआ था। केवल 13 वर्ष की अवस्था में ही वह अपने चचेरे भाई जादोनांग से प्रभावित हो गयीं। जादोनांग प्रथम विश्व युद्ध में लड़ चुके थे।

युद्ध के बाद अपने गाँव आकर उन्होंने तीन नागा कबीलों जेमी, ल्यांगमेयी और रांगमेयी में एकता स्थापित करने हेतु ‘हराका’ पन्थ की स्थापना की। आगे चलकर ये तीनों सामूहिक रूप से जेलियांगरांग कहलाये। इसके बाद वे अपने क्षेत्र से अंग्रेजों को भगाने के प्रयास में लग गयेे।

इससे अंग्रेज नाराज हो गये। उन्होंने जादोनांग को 29 अगस्त 1931 को फाँसी दे दी; पर नागाओं ने गाइडिन्ल्यू के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा। अंग्रेजों ने आन्दोलनरत गाँवों पर सामूहिक जुर्माना लगाकर उनकी बन्दूकें रखवा लीं। 17 वर्षीय गाइडिन्ल्यू ने इसका विरोध किया। वे अपनी नागा संस्कृति को सुरक्षित रखना चाहती थीं। हराका का अर्थ भी शुद्ध एवं पवित्र है। उनके साहस एवं नेतृत्वक्षमता को देखकर लोग उन्हें देवी मानने लगे।

अब अंग्रेज गाइडिन्ल्यू के पीछे पड़ गये। उन्होंने उनके प्रभाव क्षेत्र के गाँवों में उनके चित्र वाले पोस्टर दीवारों पर चिपकाये तथा उन्हें पकड़वाने वाले को 500 रु. पुरस्कार देने की घाषिणा की; पर कोई इस लालच में नहीं आया। अब गाइडिन्ल्यू का प्रभाव उत्तरी मणिपुर, खोनोमा तथा कोहिमा तक फैल गया। नागाओं के अन्य कबीले भी उन्हें अपना नेता मानने लगे।

1932 में गाइडिन्ल्यू ने पोलोमी गाँव में एक विशाल काष्ठदुर्ग का निर्माण शुरू किया, जिसमें 40,000 योद्धा रह सकें। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे अन्य जनजातीय नेताओं से भी सम्पर्क बढ़ाया। गाइडिन्ल्यू ने अपना खुफिया तन्त्र भी स्थापित कर लिया। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी। यह देखकर अंग्रेजों ने डिप्टी कमिश्नर जे.पी.मिल्स को उन्हें पकड़ने की जिम्मेदारी दी। 17 अक्तूबर, 1932 को मिल्स ने अचानक गाइडिन्ल्यू के शिविर पर हमला कर उन्हें पकड़ लिया।

गाइडिन्ल्यू को पहले कोहिमा और फिर इम्फाल लाकर मुकदमा चलाया गया। उन पर राजद्रोह के भीषण आरोप लगाकर 14 साल के लिए जेल के सीखचों के पीछे भेज दिया गया। 1937 में जब पंडित नेहरू असम के प्रवास पर आये, तो उन्होंने गाइडिन्ल्यू को ‘नागाओं की रानी’ कहकर सम्बोधित किया। तब से यही उनकी उपाधि बन गयी। आजादी के बाद उन्होंने राजनीति के बदले धर्म और समाज की सेवा के मार्ग को चुना।

1958 में कुछ नागा संगठनों ने विदेशी ईसाई मिशनरियों की शह पर नागालैण्ड को भारत से अलग करने का हिंसक आन्दोलन चलाया। रानी माँ ने उसका प्रबल विरोध किया। इस पर वे उनके प्राणों के प्यासे हो गये। इस कारण रानी माँ को छह साल तक भूमिगत रहना पड़ा। इसके बाद वे भी शान्ति के प्रयास में लगी रहीं।

1972 में भारत सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र और फिर ‘पद्मभूषण’ देकर सम्मानित किया। वे अपने क्षेत्र के ईसाइकरण की विरोधी थीं। अतः वे वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद् के अनेक सम्मेलनों में गयीं। आजीवन अविवाहित रहकर नागा जाति, हिन्दू धर्म और देश की सेवा करने वाली रानी माँ गाइडिन्ल्यू ने 17 फरवरी, 1993 को यह शरीर और संसार छोड़ दिया।

भारतीय काव्य-क्षेत्र के तेजस्वी नक्षत्र माइकेल मधुसूदन दत्त का जन्म 25 जनवरी, 1824 को ग्राम सागरदारी (जिला जैसोर, बंगाल) में हुआ था। आजकल यह क्षेत्र बांग्लादेश में है। इन्हें 19 वीं सदी के रचनात्मक पुनर्जागरण का प्रणेता माना जाता है।

बालपन से ही मधुसूदन तीव्र बुद्धि के थे। शिक्षा के प्रारम्भिक दौर में इन्होंने संस्कृत, बंगला एवं फारसी का अध्ययन किया। कविता के प्रति इनके मन में आकर्षण प्रारम्भ से ही था। 1837 में इन्होंने कोलकाता के हिन्दू कॉलिज में प्रवेश लिया, जहां शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था।

कुछ समय में इन्होंने अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। इससे वहां भी इनकी प्रतिभा प्रकट होने लगी। कोलकाता के खुले एवं शिक्षित वातावरण में इनकी काव्य कल्पनाएँ अनन्त आकाश में उड़ने को व्याकुल हो उठीं।

अब तक मधुसूदन दत्त के मन में सर्जना के अंकुर फूटने लगे थे। अंग्रेजी के प्रख्यात कवि शेक्सपियर, मिल्टन और बॉयरान के ये प्रशंसक थे। उनसे प्रभावित होकर ये अंग्रेजी में कविता लिखने लगे। विद्यालय में अध्यापकों तथा काव्य गोष्ठियों में प्रबुद्ध जनों की प्रशंसा से इनका उत्साह बढ़ता रहा। 1848 में ये मद्रास गये और वहाँ एक विद्यालय में अध्यापन करने लगे। वहीं इन्होंने अपनी सबसे लम्बी कविता ‘दि कैप्टिव लेडी’ लिखी।

मधुसूदन दत्त काव्य की बनी-बनायी लीक पर चलने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने भारतीय काव्य में पहली बार मुक्तछन्द का प्रयोग किया। इसके लिए उन्हें आलोचना और प्रशंसा दोनों ही मिलीं। मद्रास में ही इन्होंने गीतिकाव्य, त्रिपदी, चतुष्पदी एवं प॰च चरण कविताओं जैसे अनेक प्रयोग किये। नये-नये प्रयोगों के कारण इन्हें कविता का क्रान्तिकारी कहा जाता है।

इन्होंने परिवर्णी काव्य, सम्बोधि गीत, पत्रकाव्य, मुक्तछन्द, चित्रात्मक काव्य आदि में ऐसी नयी शैली प्रस्तुत की, कि सब ओर इनके काव्य की चर्चा होने लगी। वे अपनी कविता में कल्पनाओं का ऐसा भव्य संसार खड़ा करते थे कि उसे पढ़कर लोग दंग रह जाते थे।

1856 में वे कोलकाता वापस आ गये। यहाँ उन्होंने अनेक प्रसिद्ध अंग्रेजी कविताओं का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया। अंग्रेजों जैसी जीवन शैली अपनाने के लिए इन्होंने ईसाई मत स्वीकार कर लिया था; पर इनकी रचनाओं में भारत और भारतीयता का रंग ही प्रमुख रहा।

कोलकाता में मधुसूदन दत्त ने बंगला भाषा में कविताएँ लिखनी प्रारम्भ कीं। 1860 में लिखित ‘तिलोत्मा सम्भव’ इनकी पहली बंगला कविता थी। 1862 में वे कानून पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड गये; पर इससे पूर्व उन्होंने संस्कृत, बंगला, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं में प्रचुर काव्य साहित्य रचा।

विदेश प्रवास में उन्होंने कानून के साथ-साथ फ्रेंच, जर्मन, हिब्रू आदि भाषाओं की काव्य कृतियों का भी अध्ययन किया। कविता के साथ-साथ उन्होंने अनेक नाटक एवं काव्य नाटक भी लिखे। इनमें शर्मिष्ठा, पद्मावती, कृष्णा कुमारी, मेघनाद वध, व्रजांगना, वीरांगना, तीरांगना आदि प्रमुख हैं।
उन्होंने आम आदमी द्वारा बोली जाने वाली सरल भाषा का प्रयोग किया। इससे इनका साहित्य जन-जन का साहित्य बन गया।

3 जुलाई, 1873 को दुनिया से विदा लेने से पूर्व वे भारतीय साहित्य के क्षेत्र में ऐसी समृद्ध परम्परा निर्माण कर गये, जो लम्बे समय तक लेखकों का मार्गदर्शन करती रही।

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होमी जहांगीर भाभा  भारत के एक प्रमुख वैज्ञानिक और स्वप्नदृष्टा थे जिन्होंने भारत के परमाणु उर्जा कार्यक्रम की कल्पना की थी। उन्होने मुट्ठी भर वैज्ञानिकों की सहायता से मार्च 1944 में नाभिकीय उर्जा पर अनुसन्धान आरम्भ किया। उन्होंने नाभिकीय विज्ञान में तब कार्य आरम्भ किया जब अविछिन्न शृंखला अभिक्रिया का ज्ञान नहीं के बराबर था और नाभिकीय उर्जा से विद्युत उत्पादन की कल्पना को कोई मानने को तैयार नहीं था।उन्हें ‘आर्किटेक्ट ऑफ इंडियन एटॉमिक एनर्जी प्रोग्राम’ भी कहा जाता है।

भाभा का जन्म मुम्बई के एक सभ्रांत पारसी परिवार में हुआ था।  उनकी कीर्ति सारे संसार में फैली। भारत वापस आने पर उन्होंने अपने अनुसंधान को आगे बढ़ाया। भारत को परमाणु शक्ति बनाने के मिशन में प्रथम पग के तौर पर उन्होंने 1945 में मूलभूत विज्ञान में उत्कृष्टता के केंद्र टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआइएफआर) की स्थापना की।

डा. भाभा एक कुशल वैज्ञानिक और प्रतिबद्ध इंजीनियर होने के साथ-साथ एक समर्पित वास्तुशिल्पी, सतर्क नियोजक, एवं निपुण कार्यकारी थे। वे ललित कला व संगीत के उत्कृष्ट प्रेमी तथा लोकोपकारी थे। 1947 में भारत सरकार द्वारा गठित परमाणु ऊर्जा आयोग के प्रथम अध्यक्ष नियुक्त हुए। 1963 में जेनेवा में अनुष्ठित विश्व परमाणुविक वैज्ञानिकों के महासम्मेलन में उन्होंने सभापतित्व किया।

भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के जनक का 24  जनवरी सन 1966 को एक विमान दुर्घटना में निधन हो गया था.

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स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में जिनकी एक पुकार पर हजारों महिलाओं ने अपने कीमती गहने अर्पित कर दिये, जिनके आह्नान पर हजारों युवक और युवतियाँ आजाद हिन्द फौज में भर्ती हो गये, उन नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा की राजधानी कटक के एक मध्यमवर्गीय परिवार में 23 जनवरी, 1897 को हुआ था।

सुभाष के अंग्रेजभक्त पिता रायबहादुर जानकीनाथ चाहते थे कि वह अंग्रेजी आचार-विचार और शिक्षा को अपनाएँ। विदेश में जाकर पढ़ें तथा आई.सी.एस. बनकर अपने कुल का नाम रोशन करें; पर सुभाष की माता श्रीमती प्रभावती हिन्दुत्व और देश से प्रेम करने वाली महिला थीं। वे उन्हें 1857 के संग्राम तथा विवेकानन्द जैसे महापुरुषों की कहानियाँ सुनाती थीं। इससे सुभाष के मन में भी देश के लिए कुछ करने की भावना प्रबल हो उठी।

सुभाष ने कटक और कोलकाता से विभिन्न परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। फिर पिताजी के आग्रह पर वे आई.सी.एस की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गये। अपनी योग्यता और परिश्रम से उन्होंने लिखित परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया; पर उनके मन में ब्रिटिश शासन की सेवा करने की इच्छा नहीं थी। वे अध्यापक या पत्रकार बनना चाहते थे। बंगाल के स्वतन्त्रता सेनानी देशबन्धु चितरंजन दास से उनका पत्र-व्यवहार होता रहता था। उनके आग्रह पर वे भारत आकर कांग्रेस में शामिल हो गये।

कांग्रेस में उन दिनों गांधी जी और नेहरू जी की तूती बोल रही थी। उनके निर्देश पर सुभाष बाबू ने अनेक आन्दोलनों में भाग लिया और 12 बार जेल-यात्रा की। 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये; पर फिर उनके गांधी जी से कुछ मतभेद हो गये। गांधी जी चाहते थे कि प्रेम और अहिंसा से आजादी का आन्दोलन चलाया जाये; पर सुभाष बाबू उग्र साधनों को अपनाना चाहते थे। कांग्रेस के अधिकांश लोग सुभाष बाबू का समर्थन करते थे। युवक वर्ग तो उनका दीवाना ही था।

सुभाष बाबू ने अगले साल मध्य प्रदेश के त्रिपुरी में हुए अधिवेशन में फिर से अध्यक्ष बनना चाहा; पर गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा कर दिया। सुभाष बाबू भारी बहुमत से चुनाव जीत गये। इससे गांधी जी के दिल को बहुत चोट लगी। आगे चलकर सुभाष बाबू ने जो भी कार्यक्रम हाथ में लेना चाहा, गांधी जी और नेहरू के गुट ने उसमें सहयोग नहीं दिया। इससे खिन्न होकर सुभाष बाबू ने अध्यक्ष पद के साथ ही कांग्रेस भी छोड़ दी।

अब उन्होंने ‘फारवर्ड ब्लाक’ की स्थापना की। कुछ ही समय में कांग्रेस की चमक इसके आगे फीकी पड़ गयी। इस पर अंग्रेज शासन ने सुभाष बाबू को पहले जेल में और फिर घर में नजरबन्द कर दिया; पर सुभाष बाबू वहाँ से निकल भागे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। सुभाष बाबू ने अंग्रेजों के विरोधी देशों के सहयोग से भारत की स्वतन्त्रता का प्रयास किया। उन्होंने आजाद हिन्द फौज के सेनापति पद से जय हिन्द, चलो दिल्ली तथा तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा का नारा दिया; पर दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।

सुभाष बाबू का अन्त कैसे, कब और कहाँ हुआ, यह रहस्य ही है। कहा जाता है कि 18 अगस्त, 1945 को जापान में हुई एक विमान दुर्घटना में उनका देहान्त हो गया। यद्यपि अधिकांश तथ्य इसे झूठ सिद्ध करते हैं; पर उनकी मृत्यु के रहस्य से पूरा पर्दा उठना अभी बाकी है।

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जय-जय श्री रघुवीर समर्थ 

हिन्दू पद पादशाही के संस्थापक छत्रपति शिवाजी के गुरु, समर्थ स्वामी रामदास का नाम भारत के साधु-सन्तों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत में तो प्रत्यक्ष हनुमान् जी के अवतार के रूप में उनकी पूजा की जाती है। उनके जन्मस्थान जाम्बगाँव में उनकी मूर्ति मन्दिर में स्थापित की गयी है।

यद्यपि मूर्ति स्थापना के समय अनेक विद्वानों ने कहा कि मनुष्यों की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा देवताओं के समान नहीं की जा सकती; पर हनुमान् जी के अवतार वाली जन मान्यता के सम्मुख उन्हें झुकना पड़ा।

स्वामी रामदास का जन्म चैत्र शुक्ल 9, विक्रम सम्वत् 1665 (1608 ई0) को दोपहर में हुआ था। यही समय श्रीराम के जन्म का भी है। सूर्याजी पन्त तथा राणूबाई के घर में जन्मे इस बालक का नाम नारायण रखा गया। नारायण बचपन में बहुत शरारती थे। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने हनुमान् जी को अपना गुरु मान लिया। इसके बाद तो उनका अधिकांश समय हनुमान् मन्दिर में पूजा में बीतने लगा।

एक बार उन्होंने निश्चय किया कि जब तक मुझे हनुमान् जी दर्शन नहीं देंगे, तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। यह संकल्प देखकर हनुमान् जी प्रकट हुए और उन्हें श्रीराम के दर्शन भी कराये। रामचन्द्र जी ने उनका नाम नारायण से बदलकर रामदास कर दिया।

जब घर वाले उनका विवाह करने लगे, तो वे मण्डप से भागकर गोदावरी के पास टाकली गाँव में एक गुफा में रहकर तप करने लगे। भिक्षा से जो सामग्री मिलती, उसी से वे अपना जीवनयापन करते थे। बारह साल तक कठोर तप करने के बाद वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। यात्रा में उन्होंने हिन्दुओं की दुर्दशा तथा उन पर हो रहे मुसलमानों के भीषण अत्याचार देखे। वे समझ गये कि हिन्दुओं के संगठन के बिना भारत का उद्धार नहीं हो सकता।

इस प्रवास में उन्होंने देश भर में 700 मठ बनाये। इनमें श्रीराम और हनुमान् जी की पूजा के साथ ही युवक कुश्ती तथा शस्त्र स॰चालन का अभ्यास करते थे। इस प्रकार उन्होंने युवकों की एक अच्छी टोली खड़ी कर दी। चाफल केन्द्र से वे इनका संचालन करते थे। ‘जय-जय श्री रघुवीर समर्थ’ उनका उद्घोष था। इसी से लोग उन्हें ‘समर्थ स्वामी’ कहने लगे। जब शिवाजी ने आदर्श हिन्दू राज्य स्थापित करने के प्रयास प्रारम्भ किये, तो उन्होंने समर्थ स्वामी को अपना गुरु और मार्गदर्शक बनाया।

समर्थ स्वामी की जीवन यात्रा के अनुभव मुख्यतः ‘दासबोध’ नामक ग्रन्थ में संकलित हैं। ऐसी मान्यता है यह उन्होंने शिवाजी के मार्गदर्शन के लिए लिखा था। उनके शिष्य उनके प्रवचनों को लिखते रहते थे। यह सब अन्य अनेक ग्रन्थों में संकलित हैं। 1680 में शिवाजी के देहान्त के बाद उनके पुत्र शम्भाजी का अनुचित व्यवहार देखकर स्वामी जी को बहुत दुख हुआ। उन्होंने पत्र लिखकर उसे समझाया; पर उसने ध्यान नहीं दिया।

स्वामी जी को लगा कि जिस काम के लिए प्रभु ने उन्हें शरीर दिया था, वह उसे यथाशक्ति पूरा कर चुके हैं। अतः उन्होंने स्वयं को समेटना शुरू किया। जब अश्रुपूरित शिष्यों ने उनसे पूछा कि आपके बाद हमें मार्गदर्शन कौन देगा, तो उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘दासबोध’ की ओर संकेत किया। माघ कृष्ण 9, विक्रम सम्वत् 1739 (22 जनवरी, 1682 ई.) को राम-नाम लेते हुए समर्थ स्वामी रामदास ने अपना शरीर त्याग दिया।

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