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अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चले लम्बे संग्राम का बिगुल बजाने वाले पहले क्रान्तिवीर मंगल पांडे का जन्म 30 जनवरी, 1831 को ग्राम नगवा (बलिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। कुछ लोग इनका जन्म ग्राम सहरपुर (जिला साकेत, उ0प्र0) तथा जन्मतिथि 19 जुलाई, 1827 भी मानते हैं। युवावस्था में ही वे सेना में भर्ती हो गये थे।

उन दिनों सैनिक छावनियों में गुलामी के विरुद्ध आग सुलग रही थी। अंग्रेज जानते थे कि हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं, जबकि मुसलमान सूअर से घृणा करते हैं। फिर भी वे सैनिकों को जो कारतूस देते थे, उनमें गाय और सूअर की चर्बी मिली होती थी। इन्हें सैनिक अपने मुँह से खोलते थे। ऐसा बहुत समय से चल रहा था; पर सैनिकों को इनका सच मालूम नहीं था।

मंगल पांडे उस समय बैरकपुर में 34 वीं हिन्दुस्तानी बटालियन में तैनात थे। वहाँ पानी पिलाने वाले एक हिन्दू ने इसकी जानकारी सैनिकों को दी। इससे सैनिकों में आक्रोश फैल गया। मंगल पांडे से रहा नहीं गया। 29 मार्च, 1857 को उन्होंने विद्रोह कर दिया।

एक भारतीय हवलदार मेजर ने जाकर सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन को यह सब बताया। इस पर मेजर घोड़े पर बैठकर छावनी की ओर चल दिया। वहां मंगल पांडे सैनिकों से कह रहे थे कि अंग्रेज हमारे धर्म को भ्रष्ट कर रहे हैं। हमें उसकी नौकरी छोड़ देनी चाहिए। मैंने प्रतिज्ञा की है कि जो भी अंग्रेज मेरे सामने आयेगा, मैं उसे मार दूँगा।

सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन ने सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने को कहा; पर तब तक मंगल पांडे की गोली ने उसका सीना छलनी कर दिया। उसकी लाश घोड़े से नीचे आ गिरी। गोली की आवाज सुनकर एक अंग्रेज लेफ्टिनेण्ट वहाँ आ पहुँचा। मंगल पांडे ने उस पर भी गोली चलाई; पर वह बचकर घोड़े से कूद गया। इस पर मंगल पांडे उस पर झपट पड़े और तलवार से उसका काम तमाम कर दिया। लेफ्टिनेण्ट की सहायता के लिए एक अन्य सार्जेण्ट मेजर आया; पर वह भी मंगल पांडे के हाथों मारा गया।

तब तक चारों ओर शोर मच गया। 34 वीं पल्टन के कर्नल हीलट ने भारतीय सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने का आदेश दिया; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस पर अंग्रेज सैनिकों को बुलाया गया। अब मंगल पांडे चारों ओर से घिर गये। वे समझ गये कि अब बचना असम्भव है। अतः उन्होंने अपनी बन्दूक से स्वयं को ही गोली मार ली; पर उससे वे मरे नहीं, अपितु घायल होकर गिर पड़े। इस पर अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया।

अब मंगल पांडे पर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। उन्होंने कहा, ‘‘मैं अंग्रेजों को अपने देश का भाग्यविधाता नहीं मानता। देश को आजाद कराना यदि अपराध है, तो मैं हर दण्ड भुगतने को तैयार हूँ।’’

न्यायाधीश ने उन्हें फाँसी की सजा दी और इसके लिए 18 अप्रैल का दिन निर्धारित किया; पर अंग्रेजों ने देश भर में विद्रोह फैलने के डर से घायल अवस्था में ही 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें फाँसी दे दी। बैरकपुर छावनी में कोई उन्हंे फाँसी देने को तैयार नहीं हुआ। अतः कोलकाता से चार जल्लाद जबरन बुलाने पड़े।

मंगल पांडे ने क्रान्ति की जो मशाल जलाई, उसने आगे चलकर 1857 के व्यापक स्वाधीनता संग्राम का रूप लिया। यद्यपि भारत 1947 में स्वतन्त्र हुआ; पर उस प्रथम क्रान्तिकारी मंगल पांडे के बलिदान को सदा श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।

#MangalPanday

1857 के स्वाधीनता संग्राम में जो महिलाएं पुरुषों से भी अधिक सक्रिय रहीं, उनमें बेगम हजरत महल का नाम उल्लेखनीय है। मुगलों के कमजोर होने पर कई छोटी रियासतें स्वतन्त्र हो गयीं। अवध भी उनमें से एक थी। श्रीराम के भाई लक्ष्मण के नाम पर बसा लखनऊ नगर अवध की राजधानी था।

हजरत महल वस्तुतः फैजाबाद की एक नर्तकी थी, जिसे विलासी नवाब अपनी बेगमों की सेवा के लिए लाया था; पर फिर वह उसके प्रति भी अनुरक्त हो गया। हजरत महल ने अपनी योग्यता से धीरे-धीरे सब बेगमों में अग्रणी स्थान प्राप्त कर लिया। वह राजकाज के बारे में नवाब को सदा ठीक सलाह देती थी। पुत्रजन्म के बाद नवाब ने उसे ‘महल’ का सम्मान दिया।

वाजिदअली शाह संगीत, काव्य, नृत्य और शतरंज का प्रेमी था। 1847 में गद्दी पाकर उसने अपने पूर्वजों द्वारा की गयी सन्धि के अनुसार रियासत का कामकाज अंग्रेजों को दे दिया। अंग्रेजों ने रियासत को पूरी तरह हड़पने के लिए कायर और विलासी नवाब से 1854 में एक नयी सन्धि करनी चाही। हजरत महल के सुझाव पर नवाब ने इसे अस्वीकार कर दिया।

इससे नाराज होकर अंग्रेजों ने नवाब को बन्दी बनाकर कोलकाता भेज दिया। इससे क्रुद्ध होकर हजरत महल ने अपने 12 वर्षीय पुत्र बिरजिस कद्र को नवाब घोषित कर दिया तथा रियासत के सभी नागरिकों को संगठित कर अंग्रेजों के विरुद्ध खुला युद्ध छेड़ दिया।

अंग्रेजों ने नवाब की सेना को भंग कर दिया था। वे सब सैनिक भी बेगम से आ मिले। बेगम स्वयं हाथी पर बैठकर युद्धक्षेत्र में जाती थी। अंततः पांच जुलाई, 1857 को अंग्रेजों के चंगुल से लखनऊ को मुक्त करा लिया गया। अब वाजिद अली शाह भी लखनऊ आ गये।

इसके बाद बेगम ने राजा बालकृष्ण राव को अपना महामंत्री घोषित कर शासन के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिये। उन्होंने दिल्ली में बहादुरशाह जफर को यह सब सूचना देते हुए स्वाधीनता संग्राम में पूर्ण सहयोग का वचन दिया। उन्होंने खजाने का मुंह खोलकर सैनिकों को वेतन दिया तथा महिलाओं की ‘मुक्ति सेना’ का गठन कर उसके नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था की।

एक कुशल प्रशासक होने के नाते उनकी ख्याति सब ओर फैल गयी। अवध के आसपास के हिन्दू राजा और मुसलमान नवाब उनके साथ संगठित होने लगे। वे सब मिलकर पूरे क्षेत्र से अंग्रेजों को भगाने के लिए प्रयास करने लगेे; पर दूसरी ओर नवाब की अन्य बेगमें तथा अंग्रेजों के पिट्ठू कर्मचारी मन ही मन जल रहे थे। वे भारतीय पक्ष की योजनाएं अंग्रेजों तक पहुंचाने लगे।

इससे बेगम तथा उसकी सेनाएं पराजित होने लगीं। प्रधानमंत्री बालकृष्ण राव मारे गये तथा सेनापति अहमदशाह बुरी तरह घायल हो गये। इधर दिल्ली और कानपुर के मोर्चे पर भी अंग्रेजों को सफलता मिली। इससे सैनिक हताश हो गये और अंततः बेगम को लखनऊ छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।

1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद कई राजाओं तथा नवाबों ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली। वे उनसे निश्चित भत्ते पाकर सुख-सुविधा का जीवन जीने लगे; पर बेगम को यह स्वीकार नहीं था। वे अपने पुत्र के साथ नेपाल चली गयीं। वहां पर ही अनाम जीवन जीते हुए सात अप्रैल, 1879 को उनका देहांत हुआ। लखनऊ का मुख्य बाजार हजरत गंज तथा हजरत महल पार्क उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाये है।

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शिवाजी महाराज के किलों में पुणे का लाल महल बहुत महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने बचपन का बहुत सा समय वहाँ बिताया था; पर इस समय उस पर औरंगजेब के मामा शाइस्ता खाँ का कब्जा था। उसके एक लाख सैनिक महल में अन्दर और बाहर तैनात थे; पर शिवाजी ने भी संकटों से हार मानना नहीं सीखा था। उन्होंने स्वयं ही इस अपमान का बदला लेनेे का निश्चय किया।

6 अप्रैल, 1663 (चैत्र शुक्ल 8) की मध्यरात्रि का मुहूर्त इसके लिए निश्चित किया गया। यह दिन औरंगजेब के शासन की वर्षगाँठ थी। उन दिनों मुसलमानों के रोजे चल रहे थे। दिन में तो बेचारे कुछ खा नहीं सकते थे; पर रात में खाने-पीने और फिर सुस्ताने के अतिरिक्त कुछ काम न था। इसी समय शिवाजी ने मैदान मारने का निश्चय किया। हर बार की तरह इस बार भी अभियान के लिए सर्वश्रेष्ठ साथियों का चयन किया गया।

तीन टोलियों में सब वीर चले। द्वार पर पहरेदारों ने रोका; पर बताया कि गश्त से लौटते हुए देर हो गयी है। शाइस्ता खाँ की सेना में मराठे हिन्दू भी बहुत थे। अतः पहरेदारों को शक नहीं हुआ। द्वार खोलकर उन्हें अन्दर जाने दिया गया। सब महल के पीछे पहुँच गये। माली के हाथ में कुछ अशर्फियाँ रखकर उसे चुप कर दिया गया। शिवाजी तो महल के चप्पे-चप्पे से परिचित थे ही। अब वे रसोइघर तक पहुँच गये।

रसोई में सुबह के खाने की तैयारी हो रही थी। हिन्दू सैनिकों ने चुपचाप सब रसोइयों को यमलोक पहुँचा दिया। थोड़ी सी आवाज हुई; पर फिर शान्त। दीवार के उस पार जनानखाना था। वहाँ शाइस्ता खाँ अपनी बेगमों और रखैलों के बीच बेसुध सो रहा था। शिवाजी के साथियों ने वह दीवार गिरानी शुरू की। दो-चार ईंटों के गिरते ही हड़कम्प मच गया। एक नौकर ने भागकर खाँ साहब को दुश्मनों के आने की खबर की।

यह सुनते ही शाइस्ता खाँ के फरिश्ते कूच कर गये; पर तब तक तो दीवार तोड़कर पूरा दल जनानखाने में आ घुसा। औरतें चीखने-चिल्लाने लगीं। सब ओर हाय-तौबा मच गयी। एक मराठा सैनिक ने नगाड़ा बजा दिया। इससे महल में खलबली मच गयी। चारों ओर ‘शिवाजी आया, शिवाजी आया’ का शोर मच गया। लोग आधे-अधूरे नींद से उठकर आपस में ही मारकाट करने लगे। हर किसी को लगता था कि शिवाजी उसे ही मारने आया है।

पर शिवाजी को तो शाइस्ता खाँ से बदला लेना था। उन्होंने तलवार के वार से पर्दा फाड़ दिया। सामने ही खान अपनी बीवियों के बीच घिरा बैठा काँप रहा था। एक बीवी ने समझदारी दिखाते हुए दीपक बुझा दिया। खान को मौत सामने दिखायी दी। उसने आव देखा न ताव, बीवियों को छोड़ वह खिड़की से नीचे कूद पड़ा; पर तब तक शिवाजी की तलवार चल चुकी थी। उसकी तीन उँगलियाँ कट गयीं। अंधेरे के कारण शिवाजी समझे कि खान मारा गया। अतः उन्होंने सबको लौटने का संकेत कर दिया।

इसी बीच एक मराठे ने मुख्य द्वार खोल दिया। शिवाजी और उनके साथी भी मारो-काटो का शोर मचाते हुए लौट गये। अब खान की वहाँ एक दिन भी रुकने की हिम्मत नहीं हुई। वह गिरे हुए मनोबल के साथ औरंगजेब के पास गया। औरंगजेब ने उसे सजा देकर बंगाल भेज दिया।

अगले दिन श्रीरामनवमी थी। माता जीजाबाई को जब शिवाजी ने इस सफल अभियान की सूचना दी, तो उन्होंने हर्ष से पुत्र का माथा चूम लिया।

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विद्या भारती तथा फिर विश्व हिन्दू परिषद के काम में सक्रिय रहने वाले श्री हरमोहन लाल जी का हीरे, जवाहरात और रत्नों का पुश्तैनी कारोबार था। भारत में आगरा, जयपुर, मुंबई आदि के साथ ही अमरीका और अफ्रीका में भी उनकी दुकानें थीं। पत्थरों को परखते हुए वे लोगों को परखना भी जान गये और अनेक मानव रत्नों को संगठन में जोड़ा।

श्री हरमोहन लाल जी के पूर्वज वर्तमान पाकिस्तान में मुल्तान नगर के निवासी थे। इनमें से एक श्री गुरदयाल सिंह शिमला में बस गये। इसके बाद उनके कुछ वंशज जयपुर आ गये। वहां ‘राजामल्ल का तालाब’ उनके पुरखों द्वारा निर्मित है। इस परिवार के एक बालक गणेशीलाल को आगरा में गोद लिया गया। 1917 में जन्मे हरमोहन लाल जी गणेशीलाल जी के ही पौत्र थे।

हरमोहन लाल जी के प्रपितामह ने आगरा में ‘गणेशीलाल एंड सन्स’ के नाम से 1845 में हीरे-जवाहरात की दुकान खोली। हरमोहन लाल जी के पिता श्री ब्रजमोहन लाल जी की इस क्षेत्र में बड़ी प्रतिष्ठा थी। देश के बड़े-बड़े राजे, रजवाड़े, साहूकार और जमींदार आदि उनके ग्राहक थे। वे उन्हें अपने महल और हवेलियों में बुलाकर अपने पुराने गहनों और हीरों आदि का मूल्यांकन कराते थे। आगे चलकर हरमोहन लाल जी भी इसमें निष्णात हो गये।

अत्यधिक सम्पन्न और प्रतिष्ठित परिवार के होने के कारण हरमोहन लाल जी आगरा के अनेक क्लबों और संस्थाओं के सदस्य थे; पर 1945 में आगरा में संघ के प्रचारक श्री न.न.जुगादे के सम्पर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने और फिर धीरे-धीरे संघ के प्रति उनका प्रेम और अनुराग बढ़ता चला गया। वे कई वर्ष आगरा के नगर संघचालक रहे। जब वे अपने कारोबार के लिए जयपुर रहने लगे, तो उन्हें वहां भी नगर संघचालक बनाया गया। शिक्षाप्रेमी होने के कारण जयपुर में उन्होंने ‘आदर्श विद्या मंदिर’ की स्थापना की।

विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद वे उ.प्र. में इसके काम में सक्रिय हो गये। आपातकाल के बाद वे वानप्रस्थी बनकर पूरा समय परिषद के लिए ही लगाने लगे। 1981 में उन्हें वि.हि.प. में महामंत्री की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गयी। उनके कार्यकाल में ही ‘संस्कृति रक्षा निधि’ एवं ‘एकात्मता यज्ञ यात्रा’ जैसे कार्यक्रम सम्पन्न हुए, जो वि.हि.प. के कार्य विस्तार में मील के पत्थर हैं।

शाही जीवन के आदी हरमोहन लाल जी ने परिषद में सक्रिय होने पर सादा जीवन अपना लिया। एक बार वे महाराष्ट्र में संभाजीनगर (औरंगाबाद) के प्रवास पर गये। कार्यकर्ताओं ने उनके निवास की व्यवस्था एक सेठ के घर पर की थी; पर वे वहां न जाकर विभाग संगठन मंत्री के घर पर ही रुके। संगठन मंत्री के छोटे से घर में ओढ़ने-बिछाने का भी समुचित प्रबंध नहीं था; पर हरमोहन लाल जी बड़े आनंद से वहां रहे और धरती पर ही सोये। उनके आने की खबर पाकर शहर के कई बड़े जौहरी उनसे मिलने आये। वे यह सब देखकर हैरान रह गये। यद्यपि तब तक हरमोहन लाल जी वहां से जा चुके थे।

एबट मांउट (जिला चंपावत, उत्तराखंड) में हरमोहन लाल जी की पुश्तैनी जागीर थी। वहां उन्होंने एक सरस्वती शिशु मंदिर और धर्मार्थ चिकित्सालय खोला। उनकी पत्नी श्रीमती हीरोरानी भी इसमें बहुत रुचि लेती थीं। मथुरा के अद्वैत आश्रम के कामों के भी वही सूत्रधार थे।

मृदुभाषी एवं विनोदप्रिय स्वभाव के धनी हरमोहन लाल जी का अपने व्यापार के कारण विश्व भर में संपर्क था। इनका उपयोग उन्होंने वि.हि.प. के कार्य विस्तार के लिए किया। न्यूयार्क और कोपेनहेगन के ‘विश्व हिन्दू सम्मेलन’ इसका प्रमाण हैं। वे बैंकाक में होने वाले तीसरे सम्मेलन की तैयारी में लगे थे; पर इसी बीच पांच अपै्रल, 1986 को उनका आकस्मिक निधन हो गया।

(संदर्भ : श्रद्धांजलि स्मारिका, वि.हि.प.)

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मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक ।
मातृभूमि हित शीश चढ़ाने, जिस पथ जायें वीर अनेेक।।

श्री माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को ग्राम बाबई, जिला होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में श्री नन्दलाल एवं श्रीमती सुन्दराबाई के घर में हुआ था। उन पर अपनी माँ और घर के वैष्णव वातावरण का बहुत असर था। वे बहुत बुद्धिमान भी थे। एक बार सुनने पर ही कोई पाठ उन्हें याद हो जाता था। चैदह वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया। इस समय तक वे ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से कविताएँ व नाटक लिखने लगे थे।

1906 में कांग्रेस के कोलकाता में सम्पन्न हुए अधिवेशन में माखनलाल जी ने पहली बार लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के दर्शन किये। अपने तरुण साथियों के साथ उनकी सुरक्षा करते हुए वे प्रयाग तक गये। तिलक जी के माध्यम से वे क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आये। महाराष्ट्र के क्रान्तिवीर सखाराम गणेश देउस्कर से दीक्षा लेकर उन्होंने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किये। फिर उन्होंने पिस्तौल चलाना भी सीखा।

इसके बाद उनका रुझान पत्रकारिता की ओर हो गया। उन्होंने अनेक हिन्दी और मराठी के पत्रों में सम्पादन एवं लेखन का कार्य किया। इनमें कर्मवीर, प्रभा और गणेशशंकर विद्यार्थी द्वारा कानपुर से प्रकाशित समाचार पत्र प्रताप प्रमुख हैं। वे श्रीगोपाल, भारत सन्तान, भारतीय, पशुपति, एक विद्यार्थी, एक भारतीय आत्मा आदि अनेक नामों से लिखते थे। खंडवा से उन्होंने ‘कर्मवीर’ साप्ताहिक निकाला, जिसकी अपनी धाक थी।

1915 में उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। मित्रों एवं रिश्तेदारों के आग्रह पर भी उन्होंने पुनर्विवाह नहीं किया। अब वे सक्रिय रूप से राजनीति में कूद पड़े और गान्धी जी के भक्त बन गये। गांधी जी द्वारा 1920, 1930 और 1940 में किये गये तीन बड़े आन्दोलनों में माखनलाल जी पूरी तरह उनके साथ रहे।

गांधी जी के अतिरिक्त उन पर स्वामी रामतीर्थ, विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस आदि सामाजिक व आध्यात्मिक महापुरुषों का बहुत प्रभाव था। उनके ग्रन्थालय में अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, दर्शन, मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों की पुस्तकों की भरमार थी। खंडवा (मध्य प्रदेश) में रहकर उन्होंने अपनी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से समाजसेवा का आलोक चहुँदिश फैलाया।

माखनलाल जी को सन्तों की कविताएँ बहुत पसन्द थीं। निमाड़ के सन्त सिंगाजी से लेकर निर्गुण और सगुण सभी तरह के भक्त कवियों और सूफियों की रचनाएँ उन्हें प्रिय थीं। वे पृथ्वी को अपनी माता और आकाश को अपने घर की छत मानते थे। विन्ध्याचल की पर्वतशृंखलाएँ एवं नर्मदा का प्रवाह उनके मन में काव्य की उमंग जगा देता था। इसलिए उनके साहित्य में बार-बार पर्वत, जंगल, नदी, वर्षा जैसे प्राकृतिक दृश्य दिखायी देते हैं।

माखनलाल जी के साहित्य में देशप्रेम की भावना की सुगन्ध भी भरपूर मात्रा में दिखायी देती है। ‘एक फूल की चाह’ उनकी प्रसिद्ध कविता है –

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक ।
मातृभूमि हित शीश चढ़ाने, जिस पथ जायें वीर अनेेक।।

गांधी जी के अनन्य भक्त होने के कारण उन पर माखनलाल जी ने बहुत सी कविताएँ एवं निबन्ध लिखे हैं। लोकमान्य तिलक एवं जवाहरलाल नेहरु पर भी उन्होंने प्रचुर साहित्य की रचना की है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में उन्हें राष्ट्रकवि एवं पद्मभूषण के सम्मान से विभूषित किया गया।

माखनलाल चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में नये प्रतिमान स्थापित किये। 30 जनवरी, 1968 को उनका देहान्त हुआ।

#PuspkiAbhilasha  #MakhanlalChaturvedi

20वीं शती के प्रख्यात सेनापति फील्ड मार्शल सैमजी होरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशा का जन्म 3 अपै्रल 1914 को एक पारसी परिवार में अमृतसर में हुआ था। उनके पिता जी वहां चिकित्सक थे। पारसी परम्परा में अपने नाम के बाद पिता, दादा और परदादा का नाम भी जोड़ा जाता है; पर वे अपने मित्रों में अंत तक सैम बहादुर के नाम से प्रसिद्ध रहे।

सैम मानेकशा का सपना बचपन से ही सेना में जाने का था। 1942 में उन्होंने मेजर के नाते द्वितीय विश्व युद्ध में गोरखा रेजिमेंट के साथ बर्मा के मोर्चे पर जापान के विरुद्ध युद्ध किया। वहां उनके पेट और फेफड़ों में मशीनगन की नौ गोलियां लगीं। शत्रु ने उन्हें मृत समझ लिया; पर अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर वे बच गये। इतना ही नहीं, वह मोर्चा भी उन्होंने जीत लिया। उनकी इस वीरता पर शासन ने उन्हें ‘मिलट्री क्रास’ से सम्मानित किया।

1971 में पश्चिमी पाकिस्तान के अत्याचारों के कारण पूर्वी पाकिस्तान के लोग बड़ी संख्या में भारत आ रहे थे। उनके कारण भारत की अर्थव्यवस्था पर बड़ा दबाव पड़ रहा था तथा वातावरण भी खराब हो रहा था। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपै्रल में उनसे कहा कि वे सीमा पार कर चढ़ाई कर दें। मानेकशा ने दो टूक कहा कि कुछ समय बाद उधर वर्षा होने वाली है। ऐसे में हमारी सेनाएं वहां फंस जाएंगी। इसलिए युद्ध करना है, तो सर्दियों की प्रतीक्षा करनी होगी।

प्रधानमंत्री के सामने ऐसा उत्तर देना आसान नहीं था। मानेकशा ने यह भी कहा कि यदि आप चाहें तो मेरा त्यागपत्र ले लें; पर युद्ध तो पूरी तैयारी के साथ जीतने के लिए होगा। इसमें थल के साथ नभ और वायुसेना की भी भागीदारी होगी। इसलिए इसकी तैयारी के लिए हमें समय चाहिए।

इंदिरा गांधी ने उनकी बात मान ली और फिर इसका परिणाम सारी दुनिया ने देखा कि केवल 14 दिन के युद्ध में पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों ने  अपने सेनापति जनरल नियाजी के नेतृत्व में समर्पण कर दिया। इतना ही नहीं, तो विश्व पटल पर एक नये बांग्लादेश का उदय हुआ। इसके बाद भी जनरल मानेकशा इतने विनम्र थे कि उन्होंने इसका श्रेय जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को देकर समर्पण कार्यक्रम में उन्हें ही भेजा।

जनरल मानेकशा बहुत हंसमुख स्वभाव के थे; पर हर काम को वे पूरी निष्ठा से करते थे। देश की स्वतंत्रता के समय वे सेना संचालन निदेशालय में लेफ्टिनेंट कर्नल थे। 1948 में उन्हें इस पद के साथ ही ब्रिगेडियर भी बना दिया गया। 1957 में वे मेजर जनरल और 1962 में लेफ्टिनेंट जनरल बने।

8 जून 1969 को उन्हें थल सेनाध्यक्ष बनाया गया। 1971 में पाकिस्तान पर अभूतपूर्व विजय पाने के बाद उन्हें फील्ड मार्शल के पद पर विभूषित किया गया। 1973 में उन्होंने सेना के सक्रिय जीवन से अवकाश लिया।

जिन दिनों देश में घोर अव्यवस्था चल रही थी, तो इंदिरा गांधी ने परेशान होकर उन्हें सत्ता संभालने को कहा। जनरल मानेकशा ने हंसकर कहा कि मेरी नाक लम्बी जरूर है; पर मैं उसे ऐसे मामलों में नहीं घुसेड़ता। सेना का काम राजनीति करना नहीं है। इंदिरा गांधी उनका मुंह देखती रह गयीं।

26 जून, 2008 को 94 वर्ष की सुदीर्घ आयु में तमिलनाडु के एक सैनिक अस्पताल में उनका देहांत हुआ।

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आजकल भारत के हर गली-मुहल्ले में बच्चे क्रिकेट खेलते मिल जाते हैं। यहाँ तक कि क्रिकेट एक बीमारी बन गया है। लोग अपने सारे काम छोड़कर कान से रेडियो लगाये या दूरदर्शन के सामने बैठकर इसी की चर्चा करते रहते हैं। पैसे की अधिकता के कारण इसमें भ्रष्टाचार और राजनीति भी होने लगी है; पर 50-60 साल पहले ऐसा नहीं था।

भारत में इसे लोकप्रिय करने का जिन्हें श्रेय है, वे थे भारत के गुजरात राज्य की एक छोटी सी रियासत नवानगर के राजकुमार रणजीत सिंह। वे एक महान् खिलाड़ी एवं देशभक्त थे। उनका जन्म 1872 में हुआ था। उनका बचपन सरोदर और फिर राजकोट में बीता। राजकोट में उनका परिचय क्रिकेट से हुआ। थोड़े ही समय में उन्होंने इस खेल में महारत प्राप्त कर ली।

1892 में वे इंग्लैण्ड गये और एक वर्ष अंग्रेजी का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए मेलबोर्न पाठशाला में भर्ती हो गये। इसके बाद उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल गया। इंग्लैण्ड में सर्दी अधिक पड़ती है। जून, जुलाई तथा अगस्त के महीने वहाँ गुनगुनी गर्मी के होते हैं। उन दिनों लोग दिन भर क्रिकेट खेलते हुए धूप का आनन्द उठाते थे। रणजी क्रिकेट में अंग्रेजों जैसी श्रेष्ठता पाने के लिए पेशेवर गेंदबाजों के साथ अभ्यास करने लगे।

इंग्लैण्ड में भारतीयों के साथ बहुत भेदभाव होता था; पर रणजी अपनी कुशलता से एक ही साल में वहाँ प्रथम श्रेणी की क्रिकेट खेलने लगे। थोड़े ही समय में वे अपने विश्वविद्यालय की टीम में शामिल कर लिये गये। ऐसा स्थान पाने वाले वे पहले भारतीय थे। रन बनाने की तीव्र गति के कारण उन्हें रणजीत सिंह के बदले रनगेट सिंह कहा जाने लगा।

1907 में रणजी को उनकी रियासत का राजा बना दिया गया। अब वे नवानगर के जामसाहब कहलाने लगे। इस जिम्मेदारी से उन्हें क्रिकेट के लिए समय कम मिलने लगा। फिर भी वे साल में सात-आठ महीने इंग्लैण्ड जाकर क्रिकेट खेलते थे।

रणजी राज्य के प्रशासनिक कार्यों में भी बड़ी रुचि लेते थे। 1914 में उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में एक सैनिक के नाते भाग लिया। 1920 में लीग अ१फ नेशन्स के सम्मेलन में रणजी ने भारतीय शासकों के प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व भी किया था।

रणजी ने भारत में क्रिकेट के विकास के लिए इंग्लैण्ड से अच्छे खिलाडि़यों को बुलाया। इससे भारत में अनेक अच्छे खिलाड़ी विकसित हुए। इनमें उनके भतीजे दिलीपसिंह भी थे। विदेश जाने वाले खिलाडि़यों को वे सदा भारत का नाम ऊँचा करने के लिए प्रेरित करते थे। उन्होंने ही बैकफुट पर जाकर खेलने तथा लैग ग्लान्स जैसी नयी विधियों को क्रिकेट में प्रचलित किया।

रणजी का हृदय बहुत उदार था। उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने वाले को वे प्रोत्साहन तथा सहायता देते थे, चाहे वह राजकुमार हो या राज्य का सामान्य युवक। एक बार वे निशानेबाजी प्रतियोगिता देख रहे थे। अचानक एक गोली उनकी आँख में आ लगी। इससे उनकी वह आँख बेकार हो गयी; पर खेल के प्रेमी रणजी ने कभी उस खिलाड़ी का नाम किसी को नहीं बताया।

आज तो भारत के अनेक क्रिकेट खिलाडि़यों का विश्व में बड़ा  सम्मान है; फिर भी भारतीय क्रिकेट का नायक रणजी को ही माना जाता है। दो अप्रैल  1933 को रणजी का देहान्त हुआ। उनकी याद में भारत में प्रतिवर्ष रणजी ट्राफी खेलों का आयोजन किया जाता है।

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ऐसे सैकड़ों मौन साधकों का निर्माण किया है, जिन्होंने अपनी देह को तिल-तिल गलाकर गहन क्षेत्रों में हिन्दुत्व की जड़ें मजबूत कीं। ऐसे ही एक साधक थे श्री अरविन्द भट्टाचार्य। 

अरविन्द दा का जन्म एक अपै्रल, 1929 को हैलाकांडी (असम) में हुआ। वे विद्यार्थी जीवन में संघ के स्वयंसेवक बने। एम.ए. तथा बी.टी. कर वे एक इंटर कालिज में प्राध्यापक हो गये। उन दिनों श्री मधुकर लिमये असम में प्रचारक थे। उनके सम्पर्क में आकर ‘अरविंद दा’ ने 1966 में नौकरी छोड़कर प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया। प्रारम्भ में उन्हें संघ के काम में लगाया गया। फिर उनकी कार्यक्षमता देखकर उन्हें 1970 में ‘विश्व हिन्दू परिषद’ का सम्पूर्ण उत्तर पूर्वांचल अर्थात सातों राज्यों का संगठन मंत्री बनाया गया।

उन दिनों यहां का वातावरण बहुत भयावह था। एक ओर बंगलादेश से आ रहे मुस्लिम घुसपैठिये, उनके कारण बढ़ते अपराध और बदलता जनसंख्या समीकरण, दूसरी ओर चर्च द्वारा बाइबिल के साथ राइफल का भी वितरण और इससे उत्पन्न आतंकवाद। जनजातियों के आपसी हिंसक संघर्ष और नक्सलियों का उत्पात। ऐसे में अरविंद दा ने शून्य में से ही सृष्टि खड़ी कर दिखाई।

इस क्षेत्र में यातायात के लिए पैदल और बस का ही सहारा है। ऐसे में 50-60 कि.मी. तक पैदल चलना या 20-22 घंटे बस में लगातार यात्रा करना उनके जैसे जीवट वाले व्यक्ति के लिए ही संभव था। उन्होंने नगा नेता रानी मां गाइडिन्ल्यू तथा अनेक जनजातीय प्रमुखों को संघ और परिषद से जोड़ा। 

त्रिपुरा में शांतिकाली महाराज की हत्या के बाद उन्होंने हिन्दू सम्मेलन कर आतंक के माहौल को समाप्त किया। इस क्षेत्र में बंगलाभाषियों से घृणा की जाती है। अरविंद दा की मातृभाषा बंगला थी; पर अपने परिश्रम और मधुर व्यवहार से उन्होंने सबका मन जीत लिया था। हिन्दू सम्मेलनों द्वारा जनजातीय प्रमुखों व सत्राधिकारों को वे एक मंच पर लाए। गोहाटी आदि शहरों में बिहार से आये श्रमिकों को भी उन्होंने संगठित कर परिषद से जोड़ा।

उत्तर पूर्वांचल में चर्च की शह पर सैकड़ों आतंकी गुट अलग न्यू इंग्लैंड बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। बड़ी संख्या में लोग वहां ईसाई बन भी चुके हैं। ऐसे में संघ और विश्व हिन्दू परिषद ने वहां अनेक छात्रावास, विद्यालय, चिकित्सालय आदि स्थापित किये। इन सबमें अरविंद दा की मौन साधना काम कर रही थी। आतंकियों द्वारा लगाये गये 100 से लेकर 500 घंटे तक के कफ्र्यू के बीच भी वे निर्भयतापूर्वक समस्या पीडि़त गांवों में जाते थे। 

हिन्दू पर कहीं भी कठिनाई हो, तो अरविंद दा वहां पहुंचते अवश्य थे। आगे चलकर उन्हें वि.हि.प. का क्षेत्रीय संगठन मंत्री तथा फिर 2002 में केन्द्रीय सहमंत्री बनाया गया। सेवा कार्य और परावर्तन में उनकी विशेष रुचि थी।

अत्यधिक परिश्रम और खानपान की अव्यवस्था के कारण उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। 2005 में उनके पित्ताशय में पथरी की शल्य चिकित्सा हुई। इसके बाद उनका प्रवास प्रायः बंद हो गया। मार्च 2009 में उनका ‘सहस्रचंद्र दर्शन’ कार्यक्रम मनाया गया। कार्यकर्ताओं ने इसके लिए साढ़े तीन लाख परिवारों से सम्पर्क किया। पूर्वांचल के सब क्षेत्रों से हजारों कार्यकर्ता आये। 

जुलाई में तेज बुखार के कारण उन्हें चिकित्सालय भेजा गया। चिकित्सकों ने मस्तिष्क की जांच कर बताया कि वहां की कोशिकाएं क्रमशः मर रही हैं। दोनों फेफड़ों में पानी भरने से संक्रमण हो गया था। धीरे-धीरे नाड़ी की गति भी कम होने लगी। भरपूर प्रयास के बाद भी 26 जुलाई, 2009 को ब्रह्ममुहूर्त में उन्होंने देह त्याग दी। इस प्रकार एक मौन साधक सदा के लिए मौन हो गया।

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1950 के दशक में चीन और तिब्बत के बीच कड़वाहट शूरु हो गयी थी जब गर्मियों ने तिब्बत में उत्सव मनाया जा रहा था तब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया और प्रसाशन अपने हाथो में ले लिया. दलाई लामा उस समय मात्र 15 वर्ष के थे इसलिए रीजेंट ही सारे निर्णय लेते थे लेकिन उस समय तिब्बत की सेना में मात्र 8,000 सैनिक थे जो चीन की सेना के सामने मुट्ठी भर ही थे. जब चीनी सेना ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया तो वो जनता पर अत्याचार करने लगे, स्थानीय जनता विद्रोह करने लगी थी और दलाई लामा ने चीन सरकार से बात करने के लिए वार्ता दल भेजा लेकिन कुछ परिणाम नहीं मिला.
 
1959 में लोगो में भारी असंतोष छा गया था और अब दलाई लामा के जीवन पर भी खतरा मंडराने लगा था. चीन सरकार दलाई लामा को बंदी बनाकर तिब्बत पर पूर्णत कब्जा करना चाहती थी इसलिए दलाई लामा के शुभ चिंतको ने दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने का परामर्श दिया. अब भारी दबाव के चलते दलाई लामा को तिब्बत छोड़ना पड़ा. अब वो तिब्बत के पोटला महल से 17 मार्च 1959 को रात को अपना आधिकारिक आवास छोडकर 31 मार्च को भारत के तवांग इलाके में प्रवेश कर गये और भारत से शरण की मांग की.
 
अपने निर्वासन के बाद दलाई लामा भारत आ गये और उन्होंने तिब्बत में हो रहे अत्याचारों का ध्यान पुरे विश्व की तरफ खीचा. भारत में आकर वो धर्मशाला में बस गये जिसे “छोटा ल्हासा” भी कहा जता है जहा पर उस समय 80,000 तिब्बती शरणार्थी भारत आये थे. दलाई लामा भारत में रहते हुए सयुक्त राष्ट्र संघ से सहायता की अपील करने लगे और सयुंक्त राष्ट्र ने भी उनका प्रस्ताव स्वीकार किया. इन प्रस्तावों में तिब्बत में तिब्बतियो के आत्म सम्मान और मानवाधिकार की बात रखी गयी.
 
दलाई लामा ने इसके बाद विश्व शांति के लिए विश्व के 50 से भी ज्यादा देशो का भ्रमण किया जिसके लिए उन्हें शांति का नोबेल पुरुस्कार भी दिया गया. 2005 और 2008 में उन्हें विश्व के 100 महान हस्तियों की सूची में भी शामिल किया गया. 2011 में दलाई लामा तिब्बत के राजिनितक नेतृत्व पद से सेवानिवृत हो गये.
 
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Information Source : Bérénice Guyot-Réchard is the author of Shadow States: India, China and the Himalayas

भारत के स्वाधीनता संग्राम में जिन महापुरुषों ने विदेश में रहकर क्रान्ति की मशाल जलाये रखी, उनमें श्यामजी कृष्ण वर्मा का नाम अग्रणी है। चार अक्तूबर, 1857 को कच्छ (गुजरात) के मांडवी नगर में जन्मे श्यामजी पढ़ने में बहुत तेज थे।

इनके पिता श्रीकृष्ण वर्मा की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी; पर मुम्बई के सेठ मथुरादास ने इन्हें छात्रवृत्ति देकर विल्सन हाईस्कूल में भर्ती करा दिया। वहाँ वे नियमित अध्ययन के साथ पंडित विश्वनाथ शास्त्री की वेदशाला में संस्कृत का अध्ययन भी करने लगे।

मुम्बई में एक बार महर्षि दयानन्द सरस्वती आये। उनके विचारों से प्रभावित होकर श्यामजी ने भारत में संस्कृत भाषा एवं वैदिक विचारों के प्रचार का संकल्प लिया। ब्रिटिश विद्वान प्रोफेसर विलियम्स उन दिनों संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष बना रहे थे। श्यामजी ने उनकी बहुत सहायता की। इससे प्रभावित होकर प्रोफेसर विलियम्स ने उन्हें ब्रिटेन आने का निमन्त्रण दिया। वहाँ श्यामजी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक नियुक्त हुए; पर स्वतन्त्र रूप से उन्होंने वेदों का प्रचार भी जारी रखा।

कुछ समय बाद वे भारत लौट आये। उन्होंने मुम्बई में वकालत की तथा रतलाम, उदयपुर व जूनागढ़ राज्यों में काम किया। वे भारत की गुलामी से बहुत दुखी थे। लोकमान्य तिलक ने उन्हें विदेशों में स्वतन्त्रता हेतु काम करने का परामर्श दिया। इंग्लैण्ड जाकर उन्होंने भारतीय छात्रों के लिए एक मकान खरीदकर उसका नाम इंडिया हाउस (भारत भवन) रखा। शीघ्र ही यह भवन क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। उन्होंने राणा प्रताप और शिवाजी के नाम पर छात्रवृत्तियाँ प्रारम्भ कीं।

1857 के स्वातंत्र्य समर का अर्धशताब्दी उत्सव ‘भारत भवन’ में धूमधाम से मनाया गया। उन्होंने ‘इंडियन सोशियोलोजिस्ट’ नामक समाचार पत्र भी निकाला। उसके पहले अंक में उन्होंने लिखा – मनुष्य की स्वतन्त्रता सबसे बड़ी बात है, बाकी सब बाद में। उनके विचारों से प्रभावित होकर वीर सावरकर, सरदार सिंह राणा और मादाम भीकाजी कामा उनके साथ सक्रिय हो गये। लाला लाजपत राय, विपिनचन्द्र पाल आदि भी वहाँ आने लगे।

विजयादशमी पर्व पर ‘भारत भवन’ मंे वीर सावरकर और गांधी जी दोनों ही उपस्थित हुए। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के अपराधी माइकेल ओ डायर का वध करने वाले ऊधमसिंह के प्रेरणास्रोत श्यामजी ही थे। अब वे शासन की निगाहों में आ गये, अतः वे पेरिस चले गये। वहाँ उन्होंने ‘तलवार’ नामक अखबार निकाला तथा छात्रों के लिए ‘धींगरा छात्रवृत्ति’ प्रारम्भ की।

भारतीय क्रान्तिकारियों के लिए शस्त्रों का प्रबन्ध मुख्यतः वे ही करते थे। भारत में होने वाले बमकांडों के तार उनसे ही जुड़े थे। अतः पेरिस की पुलिस भी उनके पीछे पड़ गयी। उनके अनेक साथी पकड़े गये। उन पर भी ब्रिटेन में राजद्रोह का मुकदमा चलाया जाने लगा। अतः वे जेनेवा चले गये। 30 मार्च, 1930 को श्यामजी ने और 22 अगस्त, 1933 को उनकी धर्मपत्नी भानुमति ने मातृभूमि से बहुत दूर जेनेवा में ही अन्तिम साँस ली।

श्यामजी की इच्छा थी कि स्वतन्त्र होने के बाद ही उनकी अस्थियाँ भारत में लायी जायें। उनकी यह इच्छा 73 वर्ष तक अपूर्ण रही। अगस्त, 2003 में गुजरात के मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी उनके अस्थिकलश लेकर भारत आये।

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