एकात्मता के पुजारी : पू. नारायण गुरु / पुण्य तिथि – 20 सितम्बर 1928

हिन्दू धर्म विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है; पर छुआछूत और ऊंचनीच जैसी कुरीतियों के कारण हमें नीचा भी देखना पड़ता है। इसका सबसे अधिक प्रकोप किसी समय केरल में था। इससे संघर्ष कर एकात्मता का संचार करने वाले श्री नारायण गुरु का जन्म 1856 ई. में तिरुअनंतपुरम् के पास चेम्बा जनती कस्बे में ऐजवा जाति के श्री मदन एवं श्रीमती कुट्टी के घर में हुआ था।

नारायण के पिता अध्यापक एवं वैद्य थे; पर प्राथमिक शिक्षा के बाद कोई व्यवस्था न होने से वे अपने साथियों के साथ गाय चराने जाने लगे। वे इस दौरान संस्कृत श्लोक याद करते रहते थे। कुछ समय बाद वे खेती में भी हाथ बंटाने लगे। 1876 में गुरुकुल में भर्ती होकर उनकी शिक्षा फिर प्रारम्भ हुई। वे खेलकूद का समय प्रार्थना एवं ध्यान में बिताते थे। स्वास्थ्य खराबी के कारण उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो सकी। घर आकर उन्होंने एक विद्यालय खोल लिया। इसी समय उन्होंने काव्य रचना और गीता पर प्रवचन भी प्रारम्भ कर दिये। उन्होंने गृहस्थ जीवन के बंधन में बंधने से मना कर दिया।

अध्यात्म एवं एकांत प्रेमी नारायण भोजन, आवास और हिंसक पशुओं की चिन्ता किये बिना जंगलों में साधनारत रहते थे। अतः लोग उन्हें चमत्कारी पुरुष मानकर स्वामी जी एवं नारायण गुरु कहने लगे। यह देखकर ईसाई और मुसलमान विद्वानों ने उन्हें धर्मान्तरित करने का प्रयास किया; पर वे सफल नहीं हुए। 1888 में वे नयार नदी के पास अरूबीपुर में साधना करने लगे। वहां उन्होंने शिवरात्रि पर मंदिर बनाने की घोषणा की। आधी रात में भक्तों की भीड़ के बीच वे नदी में से एक शिवलिंग लेकर आये और उसे वैदिक मंत्रों के साथ एक चट्टान पर स्थापित कर दिया। इस प्रकार अरूबीपुर नूतन तीर्थ बन गया। कई लोगों ने यह कहकर इसका विरोध किया कि छोटी जाति के व्यक्ति को मूर्ति स्थापना का अधिकार नहीं है; पर स्वामी जी चुपचाप काम में लगे रहे।

समाज सुधार के अगले चरण के रूप में 100 से अधिक मंदिरों से उन्होंने मदिरा एवं पक्षीबलि से जुड़े देवताओं की मूर्तियां हटवा कर शिव, गणेश और सुब्रह्मण्यम की मूर्तियां स्थापित कीं। उन्होंने नये मंदिर भी बनवाये, जो उद्यान, विद्यालय एवं पुस्तकालय युक्त होते थे। इनके पुजारी तथाकथित छोटी जातियों के होते थे; पर उन्हें तंत्र, मंत्र एवं शास्त्रों का नौ साल का प्रशिक्षण दिया जाता था। मंदिर की आय का उपयोग विद्यालयों में होता था। दिन भर काम में व्यस्त रहने वालों के लिए रात्रि पाठशालाएं खोली गयीं। अनेक तीर्थों में अनुष्ठानों की उचित व्यवस्था कर पंडों द्वारा की जाने वाली ठगाई को बंद किया। बरकला की शिवगिरी पहाड़ी पर उन्होंने ‘शारदा मठम्’ नामक वैदिक विद्यालय एवं सरस्वती मंदिर की स्थापना की। इसी प्रकार अलवै में ‘अद्वैत आश्रम’ बनाया।

1924 ई. की शिवरात्रि को स्वामी जी ने अलवै में सर्वधर्म सम्मेलन कर सब धर्मों को जानने का आग्रह किया। वे तर्क-वितर्क और कुतर्क से दूर रहते थे। इससे लोगों के विचार बदलने लगे। ‘वैकोम सत्याग्रह’ के माध्यम से कई मंदिरों एवं उनके पास की सड़कों पर सब जाति वालों का मुक्त प्रवेश होने लगा। इसमें उच्च जातियों के लोग भी सहभागी हुए। यह सुनकर गांधी जी उनसे मिलने आये और उन्हें ‘पवित्र आत्मा’ कहकर सम्मानित किया।

स्वामी जी ने सहभोज, अंतरजातीय विवाह तथा कर्मकांड रहित सस्ते  विवाहों का प्रचलन किया। बाल विवाह तथा वयस्क होने पर कन्या के पिता द्वारा दिये जाने वाले भोज को बंद कराया। उन्होंने अपने विचारों के प्रसार हेतु ‘विवेक उदयम्’ पत्रिका प्रारम्भ की। 20 सितम्बर, 1928 को एकात्मता के इस पुजारी का देहांत हुआ। केरल में उनके द्वारा स्थापित मंदिर, आश्रम तथा संस्थाएं समाज सुधार के उनके काम को आगे बढ़ा रही हैं।

#vskgujarat.com


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *